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क्या तुम्हें याद है…

वक्त मिले तो पढ़ियेगा जरूर, छोटी सी कहानी है फेसबुक के दोस्त  राजवीर ने लिखी है फेसबुक पर टैग किया, तो मैंने भी हक से इसे ब्लॉग पर चिपका लिया है. पढ़कर बताइये मेरा फैसला सही है या गलत….

सात साल तीन महीने और चार दिन.. ये वक्त अच्छी तरह याद हैं मुझे क्योंकि एक- एक दिन गिन- गिन कर काटे हैं मैंने. ये जिंदगी बीत जाती अगर तुम दोबारा आकर इसे रोक नहीं लेते. जिस मॉल से तुमने अपने रास्ते अलग कर लिये थे, वहीं दोबारा दिखे हो तुम. तुम्हारे फैसले की तरह ही तुम सीढ़ी पर चढ़कर आगे जा रहे थे और मैं तुम्हारी यादों के साथ नीचे की तरफ. तुम्हें देखकर लग रहा था जैसे सारी इच्छाएं एक- एक कर पूरी कर ली है तुमने. कानों में बड़े -बड़े झुमके ,गले में हीरे के हार और हाथों में सोने की चुड़िया. देखने वालों को भले शक हो, मैं जानता हूं, तुम कुछ भी नकली नहीं पहनते. बस खरे सोने से भी ज्यादा खरा मेरा प्यार तुम्हें असली नहीं लगा. 
मुझे याद है, तुम कई बार इसी मॉल के कोने पर सोने की दुकान में रूक जाया करती थी. एक चांदी की अंगूठी पसंद की थी तुमने, सोने की नहीं की क्योंकि तुम मेरी प्राइवेट नौकरी और मेरी औकात दोनों जानती थी. बहोत कोशिश के बाद भी मैं, तुम्हारे लिए चांदी की अंगूठी खरीद नहीं पाया था. एक दूसरे दुकान से साधारण सी ही सही, लेकिन मेरे पसंद की अगूंठी ली थी मैंने, याद है किस तरह गुस्से में उसे मेरे चेहरे पर फेंक कर चली गयी थी तुम…
अब अच्छा लग रहा है, तुम्हें गहनों से लदा देखकर. मेरे प्यार से ज्यादा कीमती थे शायद, तभी तो तुम्हारे इतने करीब हैं और मैं इतनी दूर की सीढ़ी में बिल्कुल बराबर आकर तुम मेरे पास से गुजरे और मेरे इतने करीब होने को महसूस भी ना कर सके. सोच रहा हूं , क्या मैं याद भी होऊंगा तुम्हें ?.  तुम दूर निकल रही थी. उसी दिन की तरह जिस दिन हम आखिरी बार मिले थे. उस दिन भी दौड़कर रोक लेना चाहता था तुम्हें, पर तुम ही, तो कहकर गयी थी कि मेरी तरह भीखारी की जिंदगी नहीं जी सकती तुम . 
आज भी वही खड़ा हूं उस दिन भी जाते हुए देखता रहा और आज भी देख रहा हूं. देखो ना कुछ नहीं बदला मुझमें, पर वक्त बदला है. इन सात साल तीन महीनों में मैं, अब तुम्हारी सारी ख्वाहिश पूरी कर सकता हूं. आज रोक सकता हूं . दौड़कर मैं उसी सीढ़ी पर चढ़ा जिससे अभी उतरी थी तुम. मैं अब तुम्हारी तरह आगे बढ़ रहा था. नीचे जानी वाली सीढ़ियों ने दर्द आंसू और तकलीफ के सिवा दिया क्या था मुझे. तुम कोने में उसी सोने की दुकान पर खड़ी थी जहां हमारी यादें, आज भी हमारा इंतजार कर रही थीं. 
तुम्हारी आंखों के आंसू ने इशारा कर दिया था कि तुम भूली नहीं हो अबतक उन यादों को. अगर यादें पास हैं, तो किसी अंधेरे कोने में ही सही मैं भी छिपकर बैठा होऊंगा कहीं तुम्हारे दिल में. मैं तुमसे दूर खड़ा तुम्हारी यादें के साथ सफर कर रहा था . तुम आगे बढकर फिर रूक गयी. मैं भी रूक गया लेकिन तुम्हारे आंसू नहीं रूके. ये वही जगह थी, जहां मेरे चेहरे पर अंगूंठी फेंकी थी तुमने. तुम तकलीफ में रो रही थी और मेरी आंखों में खुशी के आंसू थे. 
अचानक तुमने अपना दाहिने हाथ ऊपर किया और उसकी सबसे बड़ी ऊंगली को चूम लिया . मैं थोड़ा आगे बढ़ा, ध्यान से देखा तो, ये वही अंगूठी थी , जो फेंक कर गयी थी तुम. ये तुम्हारे पास कैसे आयी ? अबतक संभाल के क्यों रखी है तुमने ?, मुझसे इतना प्यार था, तो छोड़कर क्यूं चली गयी ? कई सवाल थे मन में , तुम्हें गले लगाकर ये सारे  सवाल पूछने के लिए दौड़ा था  मैं तुम्हारी तरफ की  एक तीन साल का बच्चा मुझसे पहले पहुंचकर मां चिल्लाता हुआ लिपट गया तुमसे, उसके पीछे एक लंबा, गोरा स्मार्ट सा आदमी सूट पहनें अपनी तरफ बुला रहा था . 
बच्चे ने पूछा क्या हुआ ममा.. कुछ नहीं बेटा आंख में कचड़ा चला गया था. मैंने मन ही मन जवाब दिया, मैं ही था वो कचड़ा, जो तुम्हें तकलीफ दे रहा था. मैं उन सीढ़ियों की तरफ देख रहा था, जिससे होकर मैं तुम तक पहुंचा था. फिर, एक बार नीचे ले जाने के लिए खड़ी थी मुझे. 

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