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गांधी की प्रतिमा नहीं फेंकी गयी ना, हरिवंश टाना भगत की थी क्या फर्क पड़ता है

देश आजाद करा दिया, तो क्या उनके बच्चों को सरकारी नौकरियां मिलेगी, देश आजाद
करा दिया
, तो क्या सारे
सरकारी लाभ घर बैठे मिलेंगे, देश आजाद करा दिया तो क्या किया, इससे अच्छा तो
अंग्रेजों के वक्त था. अक्सर  युवा कहते हैं, जिन्होंने अग्रेजों के दौर का वो जुल्म नहीं देखा. कई जगह पर सही भी हैं,
बिल्कुल सही कि सरकारी लाभ कई पीढ़ियों को नहीं मिलना चाहिए. मेरा एक सवाल है उन्हीं से-  क्या जिन्होंने आजादी दिलायी, लड़े, जेल गये, लाठियां खायी उन्हें उनकी जगहों से
ही उखाड़ कर फेंक दिया जाना चाहिए ? 



राजनीति समझिये फिर जवाब दीजिएगा
लेनिन की मूर्ति टूटी, बवाल हुआ,
बाबा साहेब की मूर्तियों को खंडित किया गया, हंगामा हुआ, परियार, श्यामा प्रसाद
मुखर्जी, तिलका मांझी, विद्यासागर कई नाम हैं जिनकी मूर्तियां तोड़ी गयी, बवाल हुआ
ताजा मामला बंगाल का है जहां विद्यासागर कॉलेज में ईश्वरचंद विद्यासागर की मूर्ति
तोड़ी गयी. राजनीति इतनी बढ़ी की घटनाएं और बढ़ गयी.  टीएमसी ने अपने सोशल साइट की तस्वीर पर
ईश्वरचंद विद्यासागर की तस्वीर लगा दी. खैर छोड़िये ये मामला तो दूसरे राज्यों का
है.

मन करे तो मूल खबर पढ़ लीजिएगा

झारखंड में भगवान बिरसा मुंडा की प्रतिमा टूटी, विरोध हुआ फॉरेंसिक टीम आयी
प्रतिमा बनाकर लगा दी गयी. राजधानी रांची में निर्मल महतो की दो – दो प्रतिमाएं
लगी है, कारण राजनीति. प्रतिमाओं के पीछे की कहानी सम्मान से ज्यादा राजनीतिक लाभ
की है. कौन किसका नेता है, किसकी राजनीति उस प्रतिमा के सहारे चल रही है, किसकी
नहीं.



इतनी प्रतिमा तो है देश में एक की
हटी क्या फर्क पड़ता है

प्रतिमा लगाने पर आपका मत हो सकता है कि शहर में पूरे देश में इतनी प्रतिमाएं
लगायी जानी चाहिए या नहीं, अगर लगायी जानी चाहिए तो इसकी देखभाल की जिम्मेदारी
किसकी है, उसकी जो राजनीतिक लाभ ले रहा है, नगर निगम की जो देखरेख की जिम्मेदार है,
या हमारी ( आम लोग ) जो उन्हें सच में प्रेरणा मानती है. इन चर्चाओं में सरदार
पटेल की प्रतिमा भी याद कर लीजिए जिसे बनाने के लिए देश भर से लोहा गया और विशाल
प्रतिमा बनकर तैयार हुई, रांची के बड़ा तालाब में विवेकानंद की प्रतिमा भी याद
कीजिएगा जिसका उद्धाटन माननीय मुख्यमंत्री श्री रघुवर दास ने किया लेकिन अबतक किसी
के पास जवाब नहीं है कि काम कब पूरा होगा
?

सम्मान नहीं दे सकते मत दीजिए,  अपमान का अधिकार किसने दिया 

इन प्रतिमाओं पर इतनी लंबी बात बस
इसलिए कि उनका क्या जिनकी प्रतिमा से राजनीतिक लाभ अब ना के बराबर है, उनका क्या
जो प्रतिमाएं लगी लेकिन तोड़कर फेंक दी गयी और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, उनका
क्या जो आज मीडिया के भरे हुए स्पेश में अपनी छोटी सी जगह नहीं बना पाते. 






मैं बात
कर रहा हूं हरिवंश टाना भगत की. प्रतिमा लगी तो गांव में वोटबैंक को ध्यान में
रखते हुए खूब चर्चा हुई लेकिन प्रतिमा हटायी गयी तो कहीं से एक आवाज तक नहीं आयी.
विधायक कहतीं है उन्हें जानकारी नहीं है, उसी क्षेत्र की हैं, प्रतिमा लगाने में
शामिल रहीं लेकिन प्रतिमा क्यों हटी, हटी तो कोई और स्थान मिला या नहीं इसकी
जानकारी लेने का वक्त नहीं. टाना भगत की बात कोई करें भी क्यों
? ना वो वोटबैंक हैं, ना किसी को कोई फर्क पड़ता है. हरिवंश टाना भगत के बेटे,
पोते ही हैं  जिन्हें उनके अपमान से फर्क
पड़ता है इसलिए खेत में फेंकी प्रतिमा घर लेकर आ गये. 

मैं जानता हूं कि आपको भी
कोई दिलचस्पी नहीं है खबरों की भीड़ में देश की आजादी में हिस्सेदारी निभाने
वाले की प्रतिमा को चौराहे पर एक कोना ना मिले क्या फर्क पड़ता है, प्रतिमा घर के
एक कोने में पड़ी है, क्या फर्क पड़ता है. गांधी जयंती पर गांधी है ना माल्यार्पण
के लिए, हरिवंश टाना भगत ना हों क्या फर्क पड़ता है. उनके अपमान से पूरे गांव को फर्क
नहीं पड़ता, टाना समुदाय को फर्क नहीं पड़ता तो हमें और आपको क्यों फर्क पड़ता
चाहिए. मैं इसलिए लिख रहा हूं कल जब हरिवंश टाना भगत की विरासत, उनके संघर्ष की
कहानियां गुम हों तो याद रख सकूं कि एक आदमी जो मिलों पैदल चला, एक आदमी जो देश की
आजादी के लिए जेल गया, एक आदमी जो आजीवन गांधी को आदर्श मानकर उस रास्ते पर चलता
रहा, मुझे याद रहे, आपको क्या फर्क पड़ता है
?

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