33 साल की उम्र में छत्तीसगढ़ के युवा पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या कर दी गई। मुझे इस खबर ने हैरान किया, न्याय की मांग को लेकर तेज होती आवाजों में मेरी आवाज भी शामिल की जाए। खबर जब मैंने पढ़ी तो मेरे मन में कई सवाल थे, मैं मानता हूं कि ऐसे समय में सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए लेकिन एक पत्रकार की मौत पर एक पत्रकार को सवाल करने का अधिकार तो मिलना ही चाहिए। कोई समझदार साथी मुझे यह जरूर बताए कि मुकेश चंद्राकर पत्रकार थे या यूट्यूबर ?
मैंने पढ़ा प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया ने एक बयान जारी कर मुकेश चंद्राकर की हत्या की निंदा की है, प्रेस क्लब ने अपने बयान में प्रेस काउंसिल से गुज़ारिश की है कि वो मामले का संज्ञान ले और राज्य सरकार को उचित कदम उठाने के लिए कहे इन बयानों से तो साफ है कि वो पत्रकार थे। उनके मौत के बाद अगर मैं उन्हें यूट्यूबर कहूंगा तो कई लोग नाराज हो जाएंगे और ये वही लोग हैं युवा पत्रकारों को कोई खास पसंद नहीं करते।
संभव है कि मुकेश अपनी वेबसाइट के अलावा कई और न्यूज चैनल और अखबार के लिए भी काम करते हों। अब तक मिली जानकारी के अनुसार वो एनडीटीवी के लिए भी काम करते थे। अगर वो एनडीटीवी से नहीं जुड़े होते और स्वतंत्र पत्रकार होते तब भी क्या उनकी हत्या पर इनते सवाल उठते। मेरा सवाल है कि अगर यही घटना हमारे राज्य में किसी यूट्यूबर के साथ होती तो क्या यह मुद्दा इतना बड़ा मुद्दा बनता। क्या उसकी न्याय के लिए इतने ट्वीट होते जितने अभी हो रहे हैं। हाल में ही विधानसभा में एक नेता एक पत्रकार पर नाराज हो गए। रांची प्रेस क्लब के एजीएम की बैठक में भी इस पर चर्चा हुई लेकिन कोई ठोस जवाब कहीं से नहीं आया। हां खाने पर मैंने यह चर्चा जरूर सुनी कि यूट्यूब पत्रकारों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए इनकी संख्या बढ़ रही है।
सवाल है कि क्या यह पहली घटना है। बिल्कुल नहीं है, कई पत्रकार पहले भी इसी तरह मारे जा चुके हैं और भविष्य में भी इस तरह की खबरें आयें तो हैरान नहीं होना चाहिए, आम लोगों के लिए शायद यह साधारण हत्या की खबर है लेकिन एक पत्रकार होने के नाते मेरे लिए और मेरे जैसे कई साथियों के लिए यह कोई साधारण हत्या नहीं है। वैसे कई लोग सवाल खड़े कर सकते हैं कि हत्या कैसे साधारण और असाधारण हो सकती है। मैं कोशिश करता हूं समझाता हूं कि एक पत्रकार की हत्या कैसे असाधारण होती है। मुकेश चंद्राकर, विकास तिवारी ये दो नाम मेरे लिए ऐसे हैं जिन्हें मैं उनके काम से, वीडियो से पहचानता हूं बस्तर टॉकीज, बस्तर जक्शन । झारखंड और छत्तीसगढ़ सरीखे राज्यों में कुछ लोग ही है जो बेहतरीन ग्राउंड रिपोर्ट करते हैं नक्सल ग्राउंड रिपोर्ट में मेरे लिए इन दोनों की पहचान अलग है। मैंने मुकेश और विकास के कई ऐसे वीडियो देखे हैं जो नक्सली कैंप, नक्सल गांव, नक्सल समस्या के और नजदीक लेकर जाते हैं। मुकेश ने कई ऐसे वीडियो बनाए जो नक्सल, पुलिस प्रशासन और ग्रामीण विकास को लेकर कई सवाल खड़े करते थे। नक्सल रिपोर्टिंग सबसे टफ मानी जाती है क्योंकि यहां जान का खतरा है। नक्सली कैंप दिखाते हुए कब पुलिस धावा बोल दे और रिपोर्टर को नक्सल समर्थक करार देकर मार दिया जाए कहना मुश्किल है या मुठभेड़ कवर करते वक्त कब किसी नक्सली की गोली लग जाए।
जान दांव पर लगाकर लोगों के लिए काम करने वाले पत्रकार की हत्या छिनतई, पुरानी दुश्मनी, जमीन विवाद, रोड रेज में नहीं हुई। अब तक मिली जानकारी के अनुसार उसकी लाश बीजापुर शहर में सुरेश चंद्राकर के परिसर के एक सेप्टिक टैंक में मिला. जिस पर आरोप लग रहे हैं वह कांग्रेसी नेता भी है, फरार है।
इस हत्या की जांच होनी चाहिए, आरोपी को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए लेकिन सवाल सिर्फ इतना नहीं है। सवाल पत्रकारों की सुरक्षा का है। आज देशभर में स्वतंत्र पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की संख्या बढ़ी है। डिजिटल क्रांति के इस दौर ने कई लोगों को यह अधिकार दिया है कि वह अपनी वेबसाइट बनाकर खबर लिखें। अभी इस पर चर्चा नहीं करते कि कैसे यह भीड़ बढ़ रही है, यह कितना सही है कितना गलत लेकिन बढ़ती वेबसाइट, खबरों के लिए भागने वाले लोगों की भीड़ बढ़ रही है। इसे नियंत्रित करने, उनकी सुरक्षा का ध्यान रखने की जिम्मेदारी किसकी है ? इस हत्या का दोष किस पर जाएगा? अगर प्रेस क्लब, पत्रकारों के ग्रुप आपके निधन के बाद आपके लिए खड़े हो रहे हैं तो इसका मतलब ही क्या है। आप सोचिए कि अगर आज आपको किसी से जान से मारने की धमकी मिलती है तो आप क्या करेंगे ? पुलिस में रिपोर्ट करेंगे, सुरक्षा की मांग करेंगे। अगर धमकी देने वाला कोई बड़ा नेता है, बड़ा कारोबारी है, बड़ा ठेकेदार है तो…। क्या आपकी एक शिकायत पर पुलिस आपको सुरक्षा मुहैया करा देगी। क्या यह इतना आसान होगा। बगैर किसी, संगठन, संस्था के सहयोग के यह संभव है।
पत्रकारिता में बहुत पैसा नहीं है, हां पहचान है वो भी तब तक जब तक आप ग्राउंड पर नजर आ रहे हैं। कुछ दिन के लिए गायब हुए तो वो जगह ऐसी भरेगी जैसे आप पहले कभी थे ही नहीं। झारखंड की पत्रकारिता का वह दौर में कभी भूला नहीं जब मोबाइल लेकर हमने स्टोरी कवर करना शुरू किया था। मेरे लिए सारे चेहरे अनजान थे। ये वो दौर था जब टीवी और अखबार के बीच न्यू मीडिया अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहा था। उस वक्त मेरे अपने ही साथियों का व्यवहार मुझे याद है, आज भी आप किसी बड़े प्रेस कॉन्फ्रेंस में चले जाइये और देखिए कि नेताओं से सवाल पूछने वाले चेहरे फिक्स नहीं है। अभी तो भीड़ बढ़ी है और बढ़ेगी। कहा जाता है संघे शक्ति कलियुगे इसका अर्थ है कि कलि युग में संगठन में ही शक्ति है। हम संख्या में ज्यादा होकर भी इतने कमजोर कैसे हैं
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