बात सिर्फ किसी एक संस्थान की नहीं है, बात इस पेशे की है. आप अपना पूरा जीवन देते हैं. रात की नींद, सुबह का सुकून देते हैं. खबरों के पीछे भागते- भागते कई बीमारियां आपके साथ दौड़ने लगती है. गैस, डायबटिज, कम दर्द जैसी बीमारियों तो पत्रकारिता की नौकरी के पैकेज के साथ आती हैं.
इन सब बीमारियों को आप हर दिन रेस में हराते हुए खबरों पर काम करते हैं, जीत रहे होते हैं. इस जीत का पुरस्कार क्या है?. बस इतना कि आप भले दौड़ रहे हों आपका घर रेंग सके मकान का किराया, बच्चों की फीस, दुध, सब्जी बस. महीने की शुरूआत में जब पैसे सटाक से खत्म होते हैं तो अहसास होता है. इस पेशे ने कितना कुछ लिया है आपसे. इन सबके बावजूद आप खुश रहते हैं. पत्रकार कहलाते हैं यही काफी है.
इस पूरे रेस की थकान का दर्द तब महसूस होता है, जब आपके पत्रकार होने पर सवाल खड़ा होता है. पूरी जिंदगी आपने एक साधारण सी सैलरी में काम किया. आपसे पूछा जाने लगता है इस बार कंपनी का कितना मुनाफा हुआ. यह संकेत है कि अब आपकी नौकरी खतरे में है. ऑफिस की राजनीति आपके रेस में बने रहने के जज्बे को कम करती है. पत्रकारिता एक रिले रेस की तरह है. हर साथी का अपना योगदान है. पूरी टीम मिलकर ही रेस जीत सकती है. अब आपका वक्त बदल चुका है. रेस के नियम बदल चुके हैं. ऑफिस पॉलिटिक्स आपको रेस से बाहर करने में लग जाती है.
आप पूरी जिंदगी एक निर्भिक पत्रकार रहे, कई नेताओं के गुंडों के फोन से नहीं डरे. महीने का खर्च कैसे चलेगा. चिंता आपको तोड़ने लगती है. घर का किराया, स्टेट्स मेनटेंन करने के लिए किश्तों में खरीदी गयी कार पैसा, बेटी के स्कूल की फीस, बड़े बेटे के कॉलेज का पैसा कहां से आयेगा. ये डर आपको कमजोर कर देता है. पूरी जिंदगी जिस ठसक के साथ पत्रकारिता की वो खत्म हो जाती है. 30- 40 साल की उम्र में सिर्फ आप बुढ़े नहीं हुए आपके साथ उम्र हो गयी आपकी सोच की, जज्बे की.
यकीन मानिये पत्रकारिता में आते वक्त बहुत कम लोग होंगे. जो इस पर बात करेंगे. हमारे वक्त में हमारे अनुभवी गुरू मनोज सर ने कह दिया था. पत्रकारिता कर रहे हो, तो सोच समझ कर करो. जिस टीवी ने तुम्हें इस तरफ आकर्षित किया है. वही एक दिन तुम्हारी कुंठा का कारण बनेगी. बड़े सपने लेकर मत आओ क्योंकि बाहर से जो तुम देख रहे हो अंदर वैसा बिल्कुल नहीं है. सपने देखो- जिद्दी बनों आसानी से टूटना मत…
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