प्रेस क्लब चलाना आसान नहीं है लेकिन शायद इतना भी मुश्किल नहीं है कि एक बनी बनायी संपत्ति को बचाकर रखा ना जा सके. बड़े बुढ़े कहते आये हैं “संगत से गुण आत है संगत से गुण जात “. यह किसी एक व्यक्ति के संगत की बात नहीं है बात है संस्थान के भविष्य की, आखिर उसे गढ़ने वाले आगे बढ़ाने वाले हमारे प्रतिनिधि किसका सहयोग ले रहे हैं, किसके साथ चलकर प्रेस क्लब को आगे ले जाना चाहते हैं और जिनके साथ चल रहे हैं उससे आप और क्लब कहां पहुंचेगा ?
खैर, प्रेस क्लब पर लग रहे आरोप नये नहीं है. जो भी लोग इस टीम में शामिल है, हमारे प्रतिनिधि है. उन पर क्लब की जिम्मेदारी है. ऐसे जिम्मेदार लोगों को यह शोभा नहीं देता है कि वो सोशल मीडिया पर इस्तीफे का ऐलान कर दें. आरोप लगे हैं, तो उन आरोपों का खुलकर जवाब दीजिए, जो सच है उसे सबके सामने रखिये. पत्रकारों का अड्डा है सवाल तो उठेंगे ही हमलोगों ने आप पर भरोसा जताया तभी तो चुनकर भेजा है. बात आपके अकेले की नहीं है हमारे वोट की उन लोगों के विश्वास की भी है जिन्होंने आपको चुना है. मैंने एक बार लिख दिया था कि प्रेस क्लब किसी के बाप का नहीं है. कई लोग बुरा मान गये थे, कुछ ने तो इसे बदलने की पैरवी तक कर दी थी लेकिन सच, तो सच है. यह किसी एक व्यक्ति का, तो है नहीं पूरी पत्रकार बिरादरी का है. क्लब पर कोई आरोप लगते हैं तो सिर्फ एक व्यक्ति पर नहीं लगते हम सब पर लगते हैं. हमसे भी लोग पूछते हैं कि तुम्हारे प्रेस क्लब चल क्या रहा है, जवाब सिर्फ आपको नहीं हम जैसे साधारण सदस्यों को भी देना पड़ता है.
सच्चाई क्या है ? हमें अपनी कुछ सच्चाईयों को मान लेना चाहिए. कई लोगों की तो आदत रही है, अवसर तलाशने की चाहे आपदा हो या ना हो, माफ कीजिए ये कई लोगों को बुरा लग सकता है लेकिन सच है जिसे पत्रकारों को अब स्वीकार कर लेना चाहिए. मेरा निजी अनुभव इस क्षेत्र में अजीब रहा है, प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले खाने की लंबी लाइनों पर प्लेट लेकर खड़े पत्रकारों को मैंने खबरों की चिंता कम खाने की चिंता ज्यादा करते देखा है. कई बार झारखंड विधानसभा गया हूं, बजट सत्र के जरूरी कागजात की कम वहां मिलने बैग के लिए लड़ते देखा है. कई लोग तो इसमें इतने महारथी है कि दो – दो बैग लेकर ऐसे निकलते हैं जैसे उन्हें पद्मश्री का सम्मान मिला हो. नेताओं से कभी 500 तो कभी 1000 रुपये लेते देखा है सर.. सर एक फोटो नेताओं के साथ सेल्फी लेते देखा है. नेताओं से खबरों की तारीफ बटोरने की बेकार कोशिश करते देखा है. एक इंटरव्यू के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित करते देखा है अरे आइये ना भैया अच्छा – अच्छा सवाल पूछ लेंगे. खबरों की कम निजी संबंध बनाने की होड़ ज्यादा देखी है. फंला नेता हमको नाम से जानता है इसका गुमान देखा है.
पत्रकारों के पास पहचान के अलावा है भी क्या ना बढ़िया वेतन, ना भविष्य में सुरक्षा की गारंटी. मानता हूं वेतन कम है, जिम्मेदारियां ज्यादा हैं, इस पेशे में संघर्ष है लेकिन आत्मसम्मान के साथ समझौता करके तो आप पत्रकार बने नहीं रह पायेंगे. यही बात यहां लागू होती है. राजनीतिक दल के दफ्तरों में राशन के लिए कतारों में खड़े रहना पत्रकारों को तो शोभा नहीं देता. किसी की मदद करते तस्वीरें खींचवाना भी शोभा नहीं देता आप कैमरे के पीछे ही बेहतर हैं. अब कई लोगों को तर्क होगा कि मदद तो करनी ही चाहिए, कई पत्रकार हैं जिन्हें वेतन नहीं मिल रहा, घर में राशन नहीं है, ऐसे में मदद करने में क्या बुराई है ? मदद करनी चाहिए लेकिन मदद के नाम पर तस्वीर और पोस्टरबाजी करना, खबरें छपवाना, ये जायज है क्या ? अरे मदद ऐसी करें कि किसी को पता ना चले. यहां तो समाजसेवा के नाम पर भैया, चचा, दादा, मामा भर दिये गये हैं जो आपकी छवि का नुकसान ही करेंगे. संबंध, खुद की तारीफ, बेकार के प्रचार और दिखावे से बाहर निकलकर हमारे प्रतिनिधियों को क्लब के बेहतरी की चिंता करनी होगी कुछ कर भी रहे हैं…
अब ताजा विवाद पर चर्चा कर लेते हैं, तो अस्पताल शुरू करने की पहल अच्छी है, इसकी तारीफ की जानी चाहिए. क्लब के अधिकारियों ने सरकार से पहले अपील की थी कि आप हमारी जगह का इस्तेमाल कर सकते हैं, इस आपदा में हम राज्य के साथ खड़े हैं. पत्रकारों के अधिकारों के आवाज तेज हुई. जिस उत्साह के साथ जिस सोच के साथ अस्पताल की शुरुआत हुई मुझे नहीं लगता है, वो पूरा हो सका. प्रेस क्लब के कई बड़े अधिकारी संक्रमित हुए और अस्पताल में भरती भी रहे. ईश्वर की कृपा से उनकी सेहत में सुधार भी हुआ लेकिन क्या उन्हें प्रेस क्लब के अस्पताल में ही भरती नहीं हो जाना चाहिए था. सुविधा किसके लिए थी पत्रकारों के लिए ही ना, कितने पत्रकार भरती रहे. अगर आपको अपनी ही बनाये अस्पताल पर भरोसा नहीं, तो दूसरे कैसे कर लेंगे. ये तो वही बात हुई कि सरकार में शामिल सरकारी बाबू के बच्चे सरकारी अस्पताल, सरकारी स्कूल का इस्तेमाल नहीं करते वैसे ही बड़े अधिकारियों ने अपने क्लब में बने अस्पताल पर भरोसा नहीं किया, खैर ये उनका निजी चयन है, जहां सुविधा मिली रहे लेकिन भरोसा टूटने की कई वजहों में एक ये भी तो रही…
पैसे उगाही का आरोप गंभीर है. मिशन ब्लू फाउंडेशन के पंकज सोनी का बयान जिसमें उन्होंने यह कहा कि प्रेस क्लब उगाही कर रहा है, इसकी जांच होनी चाहिए. मैं मानता हूं कि प्रेस क्लब में कई बार निर्दोष लोगों को भी पिसना पड़ता है लेकिन कुछ तो ऐसे होंगे जिनकी वजह से इस तरह के आरोप बार बार लगते हैं. निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए और प्रेस की छवि को जो भी लोग नुकसान पहुंचा रहे हैं उन्हें कान पकड़कर बाहर कर देना चाहिए, जांच से याद आया प्रेस क्लब में पहले ही कई मामलों पर जांच जारी है. ईश्वर जाने उनके नतीजे क्या आये लेकिन इस तरह के आरोप क्लब की छवि तो खराब कर रहे है साथ ही पत्रकारों की भी छवि खराब कर रहे हैं.
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