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इरोम की हार, रांची के विधायक सीपी सिंह की जीत और आजसू का महाधिवेशन

आप पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के खुमार से शायद अब उतरने
लगे हो. योगी के सीएम बनने पर आपके अलग
अलग विचार होंगे. लेकिन मैं
अबतक मणिपुर से बाहर नहीं आ पाया. आपने विधानसभा चुनाव के कई विशलेषण पढ़े होंगे.
मैंने बहुत कम पढ़े क्योंकि अखबार पढ़ने की आदत अब खत्म सी हो गयी है.
वेब में काम करने के कई फायदे और नुकसान हैं. सारी राष्ट्रीय
खबरों की जानकारी लगभग होती है. सुबह उठकर वही खबरें दोबारा पढ़ना किसी फ्लॉप
फिल्म को दोबारा देखने जैसे होता है. इस बीमारी के कई नुकसान भी हैं. राज्य की कई
खबरें पता नहीं होती. कई बार संपादक या दूसरे पत्रकार मित्र जब स्थानीय खबरों पर
बात करते हैं तो आपकी चुप्पी उन्हें अहसास करा देती है कि आप इस मामले में गवार
हैं.
खैर मैं भटक ना जाऊं इसलिए आपको एक बार फिर मणिपुर लिये चलता
हूं. जिस दिन विधानसभा चुनावों के परिणाम आ रहे थे मुझे गोवा की जिम्मेदारी दी गयी
थी. आप आदमी के खराब प्रदर्शन के कारण मैं समझ रहा था लेकिन मणिपुर की एक हार ने
मुझे परेशान कर दिया. वैसे तो हम मेन स्ट्रीम मीडिया वाले वहां की चर्चा कम करते
हैं. चुनाव के कुछ महीनों पहले ही अरुणाचल प्रदेश के पूर्वमुख्यमंत्री कलिको पुल ने आत्महत्या कर ली.

सुसाइड नोट के नाम पर उन्होंने 60 पन्नों की एक पूरी कहानी
छोड़ी जिसमें उन्होंने अपने बचपन से लेकर मुख्यमंत्री तक के सफर का जिक्र किया. इस
नोट में उन्होंने कई बड़े नेताओं पर गंभीर आरोप लगाये. इसकी कितनी चर्चा सुनीं
हमने और आपने. जब किसी की मौत पर बवाल नहीं मचा तो किसी की हार औऱ जीत पर चर्चा ना
करना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन इस हार ने मेरे अंदर कई सवाल खड़े कर दिया जिसका
जवाब मैं कब से ढुढ़ रहा हूं.
मैं जिस हार का जिक्र कर रहा हूं वह इरोम शर्मिला की हार है.
मैंने पत्रकार होने के नाते टीवी और टि्वटर से कई चुनाव प्रचार कवर किये. लेकिन
किसी टीवी चैनल पर इरोम का साईकिल से घूमते हुए वोट मांगने सबसे ज्यादा प्रभावशाली
लगा. मणिपुर के लिए 16 साल तक अनशन करने वाली महिला जिसने अपने जीवन का अहम हिस्सा
वहां के लोगों के लिए दे दिया.

इरोम ने अनशन खत्म करते वक्त कहा था कि एक महिला होने के नाते
मेरे भी सपने थे. मैं भी शादी करना चाहती थी, किसी से प्यार करना चाहती थी लेकिन
नाक में नली डाली हुई लड़की और अजीब सी रहने वाली लड़की को कौन पसंद करता. इतने
त्याग और बलिदान के बदले मिला क्या सिर्फ 90 वोट…. 

हार की वजह क्या है

अगर आप झारखंड के हैं तो रांची के विधायक सीपी सिंह को जानते हैं. वह पांच बार
लगातार विधायक का चुनाव जीत चुके हैं. 1996 के बाद से ही इस सीट पर उनका कब्जा है.
आप सोच रहे होंगे कहां मणिपुर की इरोम शर्मिला सामाजिक कार्यकर्ता और झारखंड के
नेता सीपी सिंह तो आप इसे यहां और वहां से मत जोड़िये अगर हार का कारण समझना है तो
थोड़ा उठा पटक करने दीजिए.

इरोम एक खास मकसद से चुनाव मैदान में थी अफ्सपा (सशस्त्र बल विशेषाधिकार
कानून) को लेकर उनका विरोध पुराना है. इस पर विस्तार से लिख दूंगा तो लोग मुझे भी
देशद्रोही और वामपंथियोँ में जोड़ देंगे इसलिए रहने दीजिए. खैर तो मैं बात कर रहा
था इरोम और सीपी सिंह की. सीपी सिंह आम लोगों के नेता है. किसी के बच्चे का मुंडन,
नाई की दुकान के उद्धाटन से लेकर बड़े बड़े मॉल का भी उद्धाटन करते हैं. अपने
कार्यकर्ता के बगैर हलमेट पकड़े जाने पर उसे छुड़ाने के लिए दौड़े चले आते
हैं. सिफारिश करके लोगों के छोटे मोटे काम
करा देते हैं.

चुनाव प्रचार के लिए लड़के जब मोटरसाईकिल खरीदते हैं तो शो रूम
के मालिक को फोन करके कह देते हैं कि अपना लड़का है देख लेना, होली में आम लोगों
के साथ मिलकर कुर्ताफाड़ होली खेलते हैं. मतलब 100 प्रतिशत नेता हैं. दूसरी तरफ
इरोम शर्मिला हैं. ना कोई जनसभा , ना बड़ी रैली, ना सिफारिश और ना ही कोई दिखावा
लोग तो इतना भी कहने से नहीं चूकते की उनके अनशन को मणिपुर की जनता ने ही नकार
दिया.   


आम आदमी पार्टी कैसे जीत गयी थी
 
इरोम शर्मिला के 16 साल का अनशन और अन्ना हजारे के अनशन के एक
सहयोगी अरविंद केजरीवाल में कुछ तो फर्क होगा. अरविंद चुनाव और राजनीति को समझते
हैं. चुनाव से पहले प्रचार के महत्व और जनता के बीच छा जाने की कला आती है उन्हें.
उनके मफलर से लेकर खांसी तक की चर्चा है. सरकारी गाड़ी, मकान ना लेने की घोषणा से
लेकर वेतन बढ़ाने और सरकारी आवास के सजावट पर लाखों के खर्च की चर्चा है. ईरोम
शर्मिला इस सूची में पहली नहीं है चुनाव हारने वालों में
 सोनी सोरी, दयामनी बारला, मेधा पाटकर
जैसे कई नाम शामिल हैं.

आजसू का महाधिवेशन, भीड़, समर्थक, राजनीति और मेरे सवाल

रात के तकरीबन 11.30 बजे कचहरी चौक की तरफ बढ़ती लोगों की भीड़
देखकर मैं हैरान था . पहले लगा कोई मेला होगा लेकिन लोगों के पास एक काले रंग का बैग
था उस पर ध्यान दिया था आजसू महाधिवेशन लिखा था. इच्छा हुई की थोड़ा वक्त
मोहराबादी मैदान में काटा जाए. मैदान पहुंचा तो वहां काफी भीड़ थी. लोगों में बसों
में भरकर ले जाया जा रहा था.

कुछ लोगों से बात की तो पता चला कि तीन दिनों का अधिवेशन हैं
कई जिलों से लोग पहुंचे हैं. उनके रहने खाने की सबकी व्यवस्था है. आने जाने का
खर्च पार्टी ने उठाया है. एक सज्जन ने बताया लगभग 10 हजार लोग आये होंगे अलग अलग
जगहों से.

रैली में आये कार्यकर्ता आराम फरमाते हुए

मैंने पूछा कितनी गाड़ियां आयी होंगी. उनका जवाब था अरे सर
अंदाजा लगा लीजिए. 10 हजार लोगों को लाने के लिए कितनी गाड़िया चाहिए होती होंगी.
रांची का दिगंबर जैन धर्मशाला भरा था लोगों के आने का सिलसिला जारी था. कई लोग
अपना काम, नौकरी, खेत खलिहान छोड़कर पहुंचे थे.  
अखबार में छपा पहली बार महाधिवेशन में राज्य के सभी 4500 पंचायत
से प्रतिनिधि हिस्सा लिया. आजसू अकेली पार्टी है
, जिसने पंचायत
स्तर तक संगठन खड़ा किया है़ 32 हजार गांव से लोग थे.इतने लोगों के लाने, ले जाने,
ठहरने, खाने
पीने, सड़क से लेकर मैदान तक पोस्टर बैनर लगाने, टैंट लगाने
का खर्च कितना होगा.
मैंने एक कार्यकर्ता से पूछा था बोले अरे सर, आपकी गाड़ी में
प्रेस लिखा है पत्रकार मालूम पड़ते हैं आपको पता नहीं नहीं है क्या पैसा तो खर्च
होता है, पार्टी को चंदा भी तो खूब मिलता है. पहली बार महाधिवेशन हुआ है कोई कमी
नहीं होना चाहिए. कार्यकर्ताओं ने भी 500 रुपये का चंदा दिया है. अगली बार हमरी
जात के सीएम होंगे, हमारे इलाके के तब देखियेगा रंग.. हम भी आपके जइसा एगो बुलेट
तो लेइये लेंगे.
आजसू के कई पोस्टर लगे थे जिनमें लिखा था. इनसे प्रेरणा मिलती
है. मैंने इन पोस्टरों में शायद ही किसी नेता का चेहरा देखा हो. बिरसा मुंडा से
लेकर विवेकानंद तक की तस्वीर लगी थी. सोच रहा था अगर आज ये महापुरुष चुनाव लड़ रहे
होते तो जीत पाते.

अंत में इरोम से कुछ कहना चाहता हूं हालांकि यह अच्छी तरह
जानता हूं कि मेरी आवाज उनतक नहीं पहुंचेगी. मणिपुर की आवाज हमतक कहां पहुंचती तो
मेरी भी वहां कहां पहुंचने वाली है. इरोम… आप भले ना चुनाव जीत पायीं हो लेकिन
जिस दिन अफ्सपा बड़ा मुद्दा होगी आपके पोस्टर का सहारा लेकर कोई पार्टी जरूर जीत
जायेगी. जेपी ने कहा था, जिंदा कौमे पांच साल इंतजार नहीं करती आपका इंतजार तो
काफी लंबा रहा और आप जिनके लिए लड़ रही है वो सब कब के मर चुके हैं फिर लाशों के
लिए क्या लड़ना. आप अपनी लड़ाई को 90 वोटों से जोड़कर मत देखिये. आपकी जीत इससे
कहीं ज्यादा बड़ी है. अगर आप चुनावी राजनीति में जीतना चाहती हैं तो इसके कुछ
दांवपेंच सीख लीजिए. 

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