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Life Journey And journalism

मैं लिखूं या ना लिखूं ?

पिछले एक महीने से मैंने अपने ब्लॉग पर कुछ नहीं लिखा… ना
राजनीति पर, ना  अपनी चुनावी कवरेज के
दौरान हुए अनुभव पर. सोचा था सरकार बन जायेगी तब अपने मन की लिखूंगा.
आज रविवार था. पूरा दिन विषय सोचता रहा कि लिखूं, तो क्या लिखूं  ?. जीत के जश्न पर लिखूं ? या
हार की मायूसी पर लिखूं
? बिते पांच साल पर लिखूं या आने वाले
साल पर लिखूं. चुनाव के दौरान पत्रकारिता के गिरते स्तर पर लिखूं या आने वाले पांच
सालों में पत्रकारिता के भविष्य लिखूं, क्या लिखूं…. इक बात बताऊं, डरने लगा हूं,
लिखने से नहीं. समर्थक, विरोधियों की टिप्पणी से भी नहीं, खुद से… डरने लगा हूं,
अपने नाकाबिल होने से, मुझे में इतनी काबिलियत नहीं कि जो कहना चाहता हूं, आपतक
ठीक ढंग से पहूंचा सकूं
? सोचता हूं, लिखूं या ना लिखूं…  
प्रचंड बहुमत में हिस्सा हमारा भी है. हम भी लोकतंत्र की
मजबूती का एक अदना सा तिनका, तो है जो इस लोकतंत्र को खड़े रहने की ताकत दे रहा
है. हम और आप सरकार बनाते हैं लेकिन सरकारी नहीं है. हम और आप लोकतंत्र  हैं. हम लोक है जन है.
 संस्कृत
में लोक
, “जनता” तथा
तंत्र
, “शासन” होता है. हमें सत्ता की तरफ नहीं देखना
चाहिए. हमें किसी प्रचार का हिस्सा नहीं होना चाहिए. हम यानि पत्रकार जिनके कांधे
पर जिम्मेदारी है, जन की. मैं, तो खुद को छोटा सा तिनका मानता हूं लेकिन हम मिलकर
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाते हैं. इस स्तंभ की जिम्मेदारी है चौकीदारी करना और
देखना कि जन को ध्यान में रखकर तंत्र चले.  ना कि हम जन को छोड़कर तंत्र के साथ चलने लगे.

वक्त है, और हर वक्त अपना
इतिहास लिखता है. आज आप जिस पाले में भी हैं इतिहास कल आपका न्याय करेगा. आज तंत्र
के साथ जन को भूलकर आगे बढ़ रहे हैं, तो इतिहास न्याय करेगा. तंत्र के साथ जन के
लिए खड़े हैं, तो भी इतिहास न्याय करेगा. कठिन रास्ते हैं, मंजिल दूर है फिर भी
बढ़ रहे हैं, तो इतिहास न्याय करेगा. कठिन रास्ते से डरकर, जन का साथ छोड़कर
चमचमाती सड़क पर दौड़ रहे हैं, तो इतिहास न्याय करेगा.
अगर भीड़ किसी की जाति, धर्म, विचार को देखकर हत्या करेगी, तो
लिखता रहूंगा. कोई किसान फसल में हुए नुकसान के बाद आत्महत्या कर लेगा, तो लिखता
रहूंगा. कोई भूख से कुपोषण से मर जायेगा, तो लिखता रहूंगा. युवा रोजगार के लिए
सड़क पर उतरेगा, तो लिखूंगा, किसान अपनी जायज मांगों को लेकर सड़क पर उतरेगा, तो
लिखूंगा. किसी का हक, अधिकार, मान- सम्मान छिनेगा, तो लिखूंगा. इस जीत के साथ
जिम्मेदारियां है. जब सरकार उस जिम्मेदारी से भागेगी, तब लिखूंगा.


मेरी लेखनी पर जब मुझे कोई देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही,
विद्रोही, अरबन नक्सली, जैसे प्रमाण पत्र देगा, तब लिखूंगा, जब भी लगेगा लिखना है,
लिखूंगा. सरकार बदली है मेरा चरित्र और लेखनी नहीं. सरकार आयेगी, जायेगी जब हक
अधिकार नहीं मिलेगा तब लिखूंगा.
मैं क्यों डरूंगा ?, ना मैं किसी पार्टी से हूं,
ना
किसी एक विचारधारा का कट्टर समर्थक हूं. ना मैं वामपंथी हूं, ना दक्षिणपंथी हूं. मैं
आमपंथी हूं
, जिस विचारधारा से मेरे देश में हक और अधिकार मिले, न्याय
मिले, सम्मान मिले, विकास मिले
, मैं उसी रास्ते का हूं. ना मैं किसी
राजनीतिक पार्टी का फैन हूं, ना समर्थक हूं, ना विरोधी हूं, ना ही विकास का अवरोधी
हूं. मैं जन हूं
, जिसने किसी एक राजनीतिक पार्टी को तंत्र का अधिकार दिया है,
किसके लिए, मेरे लिए, मेरे अधिकारों की रक्षा के लिए. सड़क पर डरे सहमे चलने के
लिए नहीं. जाति धर्म पूछकर मेरा मजाक उड़ाने, मुझे पर डंडे बरसाने के लिए नहीं.
जब- जब ऐसा होगा मैं लिखूंगा..   
क्या आपके अंदर भी ऐसे सवाल आ रहे हैं कि लिखें या ना लिखें.
मेरे अंर्तमन ने इसका जवाब दिया है, आपके अंर्तमन के जवाब का इंतजार रहेगा

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