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आखिर एक किसान गजेन्द्र की मौत पर हंगामा क्यों

किसान गजेन्द्र 

मेरे पिता ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया. मेरी फसल बर्बाद हो गयी. मेरे तीन बच्चे हैं, घर में खाने के लिए कुछ नहीं है. मैं बहुत परेशान हूं, मुझे समझ नहीं आ रहा मैं क्या करूं. भले ही आत्महत्या के बाद हमें राजस्थान के दौसा में रहने वाले किसान की यह चिट्ठी मिली जिसने हमारे आंखों में आंसु भर दिया लेकिन गजेन्द्र ने  इस चिट्ठी के माध्यम से सिर्फ अपनी बात नहीं रखी, उसने हर एक किसान के दर्द  बयां किया. किसानों की हर रोज होने वाली आत्महत्या का जवाब दिया. जंतर मंतर पर फांसी के फंदे से झुलने वाले गजेन्द्र ने कई सवाल खड़े कर दिए. जिसके जवाब की तलाश के लिए संसद के दोनों सदनों में नेताओं ने जवाब ढुढ़ने के बजाय हंगामा मचाया. हालांकि यह पहला मौका नहीं है, जब किसान ने विवश होकर मौत को गले लगा लिया. शायद गजेन्द्र ने राजनीतिक पार्टी की रैली में आत्महत्या की इसलिए वह   बड़ा मुद्दा बना. गजेन्द्र ने मौत के बाद प्रधानमंत्री को किसानों के हितों पर संसद में हुई चर्चा में भाग लेने पर भी विवश कर दिया.

हजारों किसानों की नहीं आखिर एक किसान की मौत पर इतना हंगामा क्यों


गरीबी और फसल में हुए नुकसान के बाद किसानों की आत्महत्या यहां कोई बड़ा मुद्दा नहीं है.उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार जैसे कई राज्यों में हर रोज कोई ना कोई किसान मौत को गले लगा रहा है. लेकिन गजेन्द्र की मौत को बलिदान और शहादत कहा जा रहा है. गांव में मौत को गले लगाने वाला किसान सरकार तक अपनी मौत की खबर तक नहीं पहुंचा पाता, लेकिन गजेन्द्र ने किसानों की स्थिति पर अपनी मौत के बाद  सरकार को एक बड़े आत्ममंथन के लिए मजबूर कर दिया.


अब समझा रैलियों और विरोधप्रदर्शन में आत्महत्या की कोशिश का महत्व



मेरे मन में अक्सर यह सवाल उठता था कि विरोध प्रदर्शन और रैलियों के दैरान लोग आत्महत्या जैसी बेतुका हरकतें क्यों करते हैं .शायद सत्ता पर बैठे लोगों की नींद तभी खुलती है जब वह मीडिया या टीवी रिपोर्ट में उनकी नाक के नीचे किसी को मरते देखते हैं. जनता इस आदत को अब भली भांति समझती है. इसलिए रैलियों के दौरान अपनी आवाज बुलंद करने के लिए लोग मौत को गले लगा लेते है. चाहे वो अलग राज्य की मांग कर रहे हो, आरक्षण का विरोध या मांग कर रहे हो, बेरोजगार नौकरी की मांग कर रहे है, शिक्षक वेतन की मांग कर रहे हो या किसान फसल में हुए नुकसान के लिए भरपाई की. मुद्दा तभी बड़ा होता है जब इनके सामने कोई मौत को गले लगा लेता है. जरा सोचिये किसान तो हर रोज मर रहे हैं कई राज्यों में, एक दिन में 12-14 किसानों की मौत की खबर आ रही है. पर इन खबरों से क्या सरकार जांगी, राज्य सरकार ने 100-50 रुपये के चेक से आगे सोचा. सवाल बड़ा है लेकिन जवाब उतना ही तकलीफ देने वाला.

अरविंद केजरीवाल


दोषी कौन है. 



राजनीतिक दल इस पर जोरदार चर्चा करेंगे, पुलिस रिपोर्ट पेश करेगी, परिवार वाले न्याय मांगेगे और जनता मुकदर्शक बनकर सबकुछ देखेगी. अंत में हम यह मानकर चुप बैठ जायेंगे दोषी कोई नहीं हालात है. कई बुद्धिमान लोग यह तर्क देंगे कि आत्महत्या समस्याओं का हल नहीं. आम जनता फिर राजनीतिक पार्टियों की रैली में शामिल होगी. नयी उम्मीदें पालेगी. सरकार फिर उसी रास्तों पर चलेगी जिस पर अबतक चलती आयी है कॉपरेट और मॉर्डन इंडिया बनाने के चक्कर में गरीब किसानों की अनदेखी होगी. भले ही आज प्रधानमंत्री को यह अहसास हुआ हो कि आजादी के इतने सालों के बाद भी अगर किसानों के हितों पर विचार नहीं किया जा रहा. उनकी स्थिति में सुधार नहीं हुआ, तो हम गलत रास्ते पर है. यह अहसास होना कि हम गलत रास्ते पर है और रास्ता बदलकर सही दिशा में आगे बढ़ना दो अलग अलग बातें है सरकार.
मौत पर राजनीति

नरेंद्र मोदी 

विपक्ष और सरकार यही दोनों मिलकर देश चलाते है सरकार जहां गलत होती है विपक्ष उसे रोक कर सही दिशा दिखाने की कोशिश करता है, लेकिन एक सवाल मेरे मन में हमेशा उठता है. सरकार में आते ही एक मजबूत विपक्ष भी धरातल पर जनता के हित के फैसले लेने में कमजोर कैसे हो जाती है, या एक कमजोर सरकार विपक्ष में आते ही जनता के हितों को इतनी गंभीरता से कैसे समझती है. कुछ तो मजबूरियां होंगी वरना यूं ही कोई बेवफा नहीं होता. विपक्ष को किसान की मौत से बैठे बिठाये एक मुद्दा मिल गया. सरकार पर ऊंगलियां उठने लगी वहीं सरकार पिछली सरकारों में हुए किसानों की आत्महत्या का आकड़ा लेकर जवाब देने के लिए तैयार है.

मेरी आवाज



सच कहूं, तो इन सबके बीच गजेन्द्र जब स्वर्ग से सरकार की तरफ देखता होगा, तो सोचता होगा कि किस उम्मीद के साथ मैंने किसानों की आवाज उठाने की कोशिश की दिल्ली की सरकार ने जब  पूरे देश में किसानों के लिए सबसे बड़ी राहत की घोषणा की, तो मुझे लगा मेरे राज्य में भी यह हो सकता है. इस रैली के जरिये मैं अपनी बात लोगों तक पहुंचा सकता हूं. लेकिन वहां मेरी आवाज नहीं सुनी गयी. लेकिन मैंने भी अपनी आवाज अपनी जान की कीमत पर लोगों तक पहुंचायी इसका क्या फायदा हुआ विपक्ष और सरकार इसे गोल – गोल घुमाती रही और मेरे किसान भाई एक बार फिर आत्महत्या का विचार अपने मन में लाने को मजबूर है. सबसे बड़े लोकतंत्र में जहां जनता को जान देकर अपनी आवाज सरकार तक पहुंचानी पड़े और इस कीमत पर भी सरकार प्रजा का ध्यान ना रखें तो सिर्फ नाम मात्र के दुनिया के सबसे बड़ा जनतंत्र का क्या काम. 

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