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आपका गांव क्या आपको अब भी पहचानता है ?


निदा फाजली की एक शेर है कि
घर को खोजें रात दिन घर से निकले पाँव, वो रस्ता ही खो गया जिस रस्ते था गाँव

बिहार के औरंगाबाद जिले का एक गांव जिसे हमारे पुरखों ने बसाया। मुफ्त में लोगों को रहने के लिए जमीनें दी। घर बनाने में मदद की। आज उनकी संख्या इतनी हो गई है कि हम ही बाहरी हो गये। हमारी जमीनों पर कब्जा हो गया। जो एक वक्त दूसरों को जमीनें देकर बसा रहे थे आज उनकी पीढ़ी के नये लोग अपनी जमीनें तलाश रहे हैं। हां, गांव के कुछ बुजुर्ग मिलते हैं, तो अपनी उम्र देखे बगैर मेरे जैसे उम्र में काफी छोटे लोगों के पैर को हाथ लगाने लगते हैं कि आप सरकार है, मालिक हैं।

बिहार से होते हुए जब वही पुरखे सिमडेगा से 30 किमी दूर किसी दूसरे गांव में बसे तो वहां भी महाराज कहलाए। गांव में ब्राह्मणों को महाराज कहा करते हैं। इन दो जगहों पर बिखरी परिवार की विरासत आज इस तीसरी पीढ़ी के जिम्मे है। दोनों जगहों पर पुरखों के नाम पर बड़ी इज्जत मिलती है लेकिन उन्हें कौन समझाए कि जिसे वो सरकार, मालिक, महाराज कह रहे हैं वो आज किसी बड़े शहर में किसी और के लिए काम कर रहे हैं।

आप कहां के रहने वाले हैं ?

मुझसे अक्सर शहर में लोग पूछते हैं कि आप कहां के रहने वाले हैं। उन्हें क्या बताऊं जहां से रोजी रोटी चल रही है वहां का हैं ? जहां पिताजी रोजी रोटी की तलाश में बसे और हमारा जन्म हुआ वहां के बताएं ? या वहां के बताएं जहां दादा, परदादा बसते थे। बिहारी हैं या झारखंडी ? इस सवाल का जवाब भी आसान नहीं है। मेरे दादा, परदादा मूल रूप से बिहार के रहने वाले। दादा रोजी रोटी की तलाश में भटकते – भटकते सिमडेगा पहुंचे वहां से लगभग 30 किमी दूर एक मिशन स्कूल में शिक्षक हुए। पिताजी की नौकरी उसी जिले में किसी दूसरी जगह पर हुई। पिताजी के जाने के बाद मां की नौकरी लगी तो वो लोहरदगा जिले में आ गई। इस दौरान कई शहर बदले और रांची पिछले 15 या 16 सालों से अपने घर जैसा है। मेरा जन्म सिमडेगा इलाके में हुआ और इसी राज्य में पला , बढ़ा और अब अगली पीढ़ी भी यही बढ़ रही है। ऐसे में आप कहां के रहने वाले हैं इस सवाल का जवाब क्या हो सकता है।

असल गांव कौन सा

कहते हैं हर किसी को अपनी जड़ों से जुड़ा होना चाहिए लेकिन जड़ें जब इतनी फैल जाए तो पता लगाना मुश्किल होता है कि आखिर जड़े कहां है। हाल में ही औरंगाबाद जिले के अपने गांव से लौटा हूं। मेरे लिए वहां की भाषा, वहां के लोग सब नये। जमीन से मेरे बड़े चाचा और छोटे चाचा की कई यादें जुड़ी हैं लेकिन मैं वो जुड़ाव ही महसूस नहीं कर सका। पिताजी के रहते कभी उनके साथ बिहार गया ही नहीं। मेरे लिए तो उनकी यादें सिमडेगा जिले के उसी गांव में बसती हैं जहां मेरा जन्म हुआ और बचपन से जिस गांव से रिश्ता रहा। मैं आज भी उस गांव से वो लगाव, वो यादें साझा करता हूं जो शायद चाचा वहां महसूस कर रहे थे।


गांव छूटने के बाद वहां के घर को सुरक्षित रखना, उन्हें जिंदा रखना मुश्किल होता है। घर में कोई रहता नहीं तो धीरे- धीरे उस घर की रौनक खत्म हो जाती है। दिवारें फटने लगती है। कच्चे मकान को बचाने के लिए इरादे इतने पक्के होने चाहिए कि आप हर दो महीने में एक बार तो उसे देख लें और यह अहसास कराएं कि आप हैं। बिहार के औरंगाबाद का घर तो पूरी तरह खत्म हो गया। 15 डि से अधिक की जमीन पर अपना इतना कब्जा हो गया कि उसके चारो तरफ के रास्ते पर घर बने हैं। जिस जगह घर था वहां गांव के लोग अब फसल रख रहे हैं। आपकी जमीन पर कब्जा करने वाले लोग आपको ऐसे देखते हैं जैसे आप उनकी जमीन पर कब्जा मांगने आये हों। गांव के पुराने लोग तो पहचानते हैं लेकिन नई पीढ़ी पूरी तरह अनजान है।

क्यों पीछे छूट जाता है अपना ही गांव


कभी – कभी खुद से पूछता हूं कि इन जड़ों को छोड़कर आखिर पूरखों ने क्या हासिल किया। क्या गांव में रहना, रोजी रोटी कमाना इतना मुश्किल होगा। फिर अपना और अपने भाईयों का सफर देखता हूं कि मेरे परिवार के ज्यादातर लोग अब दिल्ली, बेंगलोर जैसे शहरों में है। क्या उन्हें कोई मजबूरी लेकर गई। बेहतर जीवन की तलाश में इंसान भटकता ही है शायद, इस भटकाव में इतना भटक जाता है कि उसकी जड़े टूट जाती है। आप अपने गांव जाकर देखिए कई घर वीरान मिलेंगे।

भविष्य क्या है

इस टूटे हुए घर के बदले उन्होंने शहर में मकान बना लिया होगा, महंगे फ्लैट ले लिए होंगे। जीवन भी ठीक चल रहा होगा। कई पीढ़ियों से लोग अपने गांव नहीं लौटें होंगे। हम पहले होली, दिवाली की छुट्टियों में गांव जाते थे लेकिन धीरे- धीरे जिम्मेदारियों की बोझ ने वो रिश्ता भी खत्म कर दिया। अब तक मुझमें वो जुड़ाव और लगाव है इसलिए उसे याद भी करता हूं लेकिन उम्मीद कम है कि मेरे बाद मेरा बेटा वो जुड़ाव महसूस करेगा क्योंकि वो रांची शहर के बड़े से अस्पताल में पैदा हुआ, किराये के मकान में बड़ा हो रहा है। उसकी यादें किसी जमीन से जुड़ी ही नहीं है अब तक। ना उसने घर का आंगन देखा, ना वहां कि मिट्टी देखी। बड़ा होगा तो पढ़ाई करने किसी दूसरे शहर जायेगा, शायद कहीं और बसेगा लेकिन वो रहेगा कहां का। जब उससे यही सवाल पूछा जायेगा कि कहां को हो तो वो रांची का कह पायेगा शायद क्योंकि उसके पास मेरी तरह कई विकल्प नहीं होंगे। शायद तब तक जो जड़े भी टूट चुकी होगी..

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