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जब घर तिहाड़ जेल बन जाता था और परिवार के बड़े जेलर

 

बचपन वाला आम का स्वाद

दोपहर की तपती गर्मी, जिसमें कोई वयस्क बाहर निकलने के विचार से ही पसीने से तर हो जाये. हमारे में बाहर निकलने का ख्याल छांव का सुकून और कच्चे आम का स्वाद मुंह में पानी ला रहा था. बड़े भैया बिस्तर पर लेटे- लेटे हमें घूर रहे थे. उनके बदन पर सफेद रंग की गंजी जो शायद अब सफेद भी नहीं की जा सकती थी, पसीने से तर थी. हाथ में ताड़ का फंखा था, जिसे वो हमें दिखा कर मारने की भी धमकी देते और फिर उसी से खुद के थुलथुले शरीर पर हवा भी करते…  

हम पर जिस तरह नजर रखी जा रही थी, वो शायद आज के  तिहाड़ जेल से भी ज्यादा मजबूत पहरा था. हमें भरी दोपहरी में, इस जेल से भागने का अनुभव था. पंखे की स्पीड धीरे होती, तो हम समझ लेते कि अब आंख लगने वाली है. यही मौका है निकलने का, मौका मिलते ही निकल लेते क्योंकि हमें पता था कि दोपहर के खाने के बाद उनकी नींद ही हमारी आजादी की चाभी थी. नींद और उनके बीच की जंग देखने का भी अपना मजा था. हम जानते थे कि नींद, तो आयेगी ही लेकिन हर दिन वो यही कहकर लेटते कि आज नहीं सोने वाले हैं, अगर गये ना तो टांग तोड़ देंगे.. 

हम वही बैठे लुडो खेलने का नाटक करते और उनकी भारी होती पलकें, हाथ के पंखे की स्पीड से अंदाजा लगाते रहते कि नींद को पूरी तरह उनके शरीर में डाउनलोड होने में कितना वक्त लगेगा अंदाजा सटीक बैठता और हम आजाद.. 

जब उन्हें भरोसा हो गया कि वो दोपहर की नींद पर काबू नहीं पा सकते तो पहरा और मजबूत हुआ. अब दरवाजे पर सिकड़ी ( कुंडी) लगने लगी. हमारी लंबाई उतनी नहीं थी कि हम उसे खोल पाते. इस बार वो निश्चिंत होकर सोये अमुमन उन्हें सोने में जितना वक्त लगता था, इस बार उससे भी आधा लगा और खर्राटे आने लगे. इस बार उन्हें नींद आयी थी लेकिन हमारी आजादी की चाभी को उन्होंने हमारी ऊंचाई से दोगुना ऊपर टांगकर रख दिया था. 

उस वक्त हम खुद को श्री अमिताभ बच्चन से कम नहीं समझ रहे थे, ऐसा लग रहा था जैसे इस बार जेलर ने हमें रोकने की पूरी तैयारी कर ली है. हम भी मन ही मन कह रहे थे.. “आपने अबतक जेल की सलाखों और जंजीरों का लोहा देखा है जेलर साहब, कालिया की हिम्मत का फौलाद नहीं देखा, पहना दीजिए मुझे सर से पांव तक जंजीरें, चुनवा दीजिए जमीन से लेकर आसमान तक लोहे की दिवारें, कालिया हर दीवार फांदकर दिखा देगा जेलर साहब, हर जंजीर तोड़कर दिखा देगा “

अक्सर जब हम यहां से फरार होने में कामयाब होते थे और शाम धूल से सने घर लौटते, तो बांस की जिस लंबी लाठी को दिखाकर, वो हमें मारने की धमकी देते थे. आज वही लाठी हमारी आजादी का सहारा बनने वाली थी. बांस की लाठी से हम कुंडी के नीचे धीरे- धीरे मारते रहे और यह भी ध्यान रखा कि वो जाग ना जायें क्योंकि यही लाठी फिर हम पर पर पड़ती, लाठी ने अपना काम किया और कुंडी नीचे गिरी लेकिन कुंडी की आवाज ने उनकी नींद तोड़ दी  उनकी आंख खुली लेकिन तबतक दरवाजा खोलकर हम तपती धरती में नंगे पैर ही आम के पेड़ और खलिहान की तरफ भागने लगे थे. धरती की तपन और उनसे मार खाने के डर ने शायद उस दिन हमारी रफ्तार हुसैन बोल्ट से भी तेज कर दी थी. 

हमारे लिए आजादी थी आम बगीचा और यहां की हवा जिसे बड़े  लहर, लू और ना जाने क्या- क्या कहते थे. घर में ताड़ के पंखे की हवा से ज्यादा ये  हवा हमें राहत देती थी. आसान नहीं था भैया की दाढ़ी बनायी हुई आधी ब्लेड छुपा कर रखना, आसान नहीं होता, घर से लाल मिर्च पाउडर, काला नमक अपने क्लास की नोटबुक के पीछे वाले पेज में फाड़कर छुपाना और यकीन मानिये आसान नहीं होता ब्लेड से आम की पतली परत छिलना, उसे सभी दोस्तों में बराबर बांटना, खट्टे आम खाकर दांत इतने खट्टे कर लेना की घर में भी कुछ खाते में दिक्कत हो, आसान नहीं होता एक के बाद एक असफलताओं के बाद भी हिम्मत कर के दूसरा ढेला उठाना और निशाना लगाना, आसान नहीं होता बार- बार ढेला फेंकने से हाथ में हुए दर्द को नजरअंदाज कर देना, आसान नहीं होता घर लौटकर सबकी डांट तो कभी – कभी थप्पड़ खाना अरे जिसने जिंदगी की शुरुआत में इतनी परेशानियां देखी हो वो आसानी से तो हार नहीं मानेंगा 

 

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