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पत्रकारिता और पक्षपात

सच क्या है? जो है जैसा है वही सच है, या हम जैसा देख रहे हैं, वो सच है ? सच को देखने का भी नजरिया है और क्या यह नजरिया सच है ? कहते हैं कई बार आंखों से देखा, कानों से सुना सच नहीं होता फिर सच कहां होता है,कैसे मिलता है? इसकी तलाश कैसे पूरी हो सकती है? सच, सच में है या नहीं या इसका ना होना ही सच है? आप सोचिए जब इन चंद लाइनों में ही सच का सच नहीं पता तो सच कहां है, कैसा है ,कैसे माना जाए। मैं आज सच पर बात करने नहीं आया, सच मानिए पत्रकारिता पर बात करने आया हूं और यह सच है या नही्ं इस पूरे लेख को पढ़कर बताइये। पत्रकारिता में निष्पक्षता की तलाश भी सच की तलाश की तरह है। निष्पक्ष होने का मतलब है किसी के पक्ष में ना होना और सबके पक्ष में होना भी तो किसी एके पक्ष में होने जैसा नहीं है। मेरी समझ में आज कोई निष्पक्ष नहीं है कोई या तो सबके पक्ष में है या किसी एक के पक्ष में है।

सच की तलाश में पत्रकार

पत्रकारिता के पक्षपात को समझना है, तो परत दर परत समझना होगा। पत्रकारिता चलती कैसे है,सांस कैसे लेती है?इसका अस्तित्व कैसा है? कितनी मजबूत है? इसका स्वरूप कैसा है? यह तो साफ है कि आज की पत्रकारिता आजादी के दौर की पत्रकारिता नहीं है कि चोरी छिपे किसी प्रिटिंग प्रेस में छप रही है और रातोंरात क्रातिकारियों के हाथ में पहुंच रही है। आज की पत्रकारिता अर्थव्यवस्था का दामन थाम कर चलती है और अर्थव्यवस्था बगैर कारोबारी और बड़े नेता के सहारे नहीं चलती। मतलब समझिए, पत्रकारिता जिसका दामन थाम कर चल रही है, वही अर्थव्यवस्था किसी और के सहारे है। जाहिर है कि पत्रकारिता पूरी तरह से अर्थव्यवस्था और अर्थव्यस्था कारोबारी और नेताओं पर निर्भर करती है। जिस पेशे में किसी पर निर्भरता हो, वो निष्पक्ष कैसे हो सकती है। पत्रकारों को निर्भिक होने की सलाह दी जाती है। ये सलाह देने वाले लोग बड़े- बड़े मंचों से पत्रकारों को निष्पक्ष होने, निर्भिक होने का ज्ञान तो देते हैं लेकिन ये कहने वाले भी किसी के पक्ष में है। सिर्फ पत्रकारिता ही नहीं पूरी दुनिया ही ऐसे चलती है निर्भरता से। हर कोई किसी ना किसी पर निर्भर है, तो पत्रकारिता कैसे आत्मनिर्भर होकर चल सकती है। बस इसकी निर्भरता सही जगह होनी चाहिए। पत्रकारिता की निर्भरता पाठकों पर होनी चाहिए वो होगा कैसे इस पर भी बात करेंगे।

प्रधानमंत्री के साथ बस एक फोटे के लिए तरसते पत्रकार

मैं तो अनुभवी भी नहीं हूं
कुछ लोगों को लग सकता है कि पत्रकारिता पर मेरा सवाल उठाना ठीक नहीं है। मेरा अनुभव मात्र 13 साल का है, कई मुझसे ज्यादा अनुभवी होंगे। वो पत्रकारिता को मुझसे ज्यादा बेहतर समझते होंगे लेकिन इन 13 सालों में मैंने किसी संस्थान को नहीं देखा जो अर्थव्यवस्था पर निर्भर नहीं है। उन्हें पत्रकारों को समय पर वेतन देना है। अखबार बांटने वालों को पैसा देना है। यह आयेगा कहां से। कई संस्थान तो भयंकर पक्षपाती होकर भी दिवालिया हो गए, अपने रिपोर्टर्स को पैसे देने के लिए पैसे नहीं है। सवाल है कि यह बड़ी संस्था चलेगी कैसे। आप जिसका पूरे पन्ने पर विज्ञापन छाप रहे हैं, अगले पेज पर उसके काम पर, उसकी योग्यता पर सवाल तो नहीं खड़ा सकते ना। हर कोई अलग- अलग स्तर पर समझौता कर रहा है। रिपोर्टर के अपने पक्ष हैं अपने लोग हैं, डेस्क पर बैठा आदमी खुद उस पेज की कई जिम्मेदारियों को निभा रहा है, तो किसी और पक्ष में है। संपादक को पूरे अखबार की जिम्मेदारी है। इसके अलावा विज्ञापन विभाग अलग है जिस पर पूरा अखबार निर्भर करता है और उसकी निर्भरता शायद ही किसी से छिपी हो।

पत्रकारिता पर कौन निर्भर है ?
पत्रकारिता और उसके पक्षपाती होने पर कौन सवाल खड़ा करता है? आम लोग जो भीड़ का हिस्सा हैं। जो किसी संस्था के चलने का गणित नहीं समझते। क्या इन्हें इस सच की सच्चाई पता है। कई बार इनके लिए जो यह सुनना चाहते हैं, वही सच होता है। यह सिर्फ एक पक्ष की बात सुनकर सच और झूठ का फैसला करते हैं। दूसरा पक्ष सुनते भी नहीं। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सहित कई धर्म और समुदाय में बटे हुए इन लोगों के लिए इनका धर्म, इनके धर्म के लोग ही सच होते हैं। जब आप पक्षपात पूर्ण सच को सच मानते हैं तो पत्रकारों से किस सच की उम्मीद करते हैं। क्यों कोई पत्रकार आपने नजरिए का सच बताकर आपसे दुश्मनी मोल लेना चाहेगा जबकि उसकी रोजी रोटी ही इससे चल रही है। हां अगर कोई यह तय कर ले कि वह किसी धर्म, किसी रानजीतिक पार्टी, किस समुह का चुनेगा और सिर्फ उसके हिस्से का सच सामने रखेगा तो बेहतर है क्योंकि किसी खास वर्ग और समूह के लिए वही बड़ा पत्रकार, ईमानदार पत्रकार हो जाता है। अब उसकी ईमानदारी सच में सच है या नहीं यह सच में किसी को नहीं पता सिर्फ उस खास वर्ग और समूह के जिसके पक्ष में हो खड़ा है।

कैसे बदलेगी स्थिति
अब सवाल है कि क्या इसे बदला जा सकता है, क्या निष्पक्ष पत्रकार होने और सच को सामने रखने का समय आयेगा। बिल्कुल आ सकता है। आप जिस कीमत पर अखबार खरीदते हैं, महीने का उससे ज्यादा आपके यहां टिशू पेपर आता होगा, आप जिससे हाथ साफ करके फेंक देते होगे। अखबार को बेचकर आप रद्दी वाले से पैसे भी वसूलते हैं, और घर में कई तरह के इस्तेमाल भी करते हैं। अखबार के पन्ने से और क्या चाहिए। अब तो यह भी नहीं कह सकते कि अखबार में जो छपता है वो सच होता है क्योंकि भूल सुधार का चलन इस तथ्य को मानने से इनकार करने पर मजबूर करता है। अखबार का संपादकीय पेज उसकी निर्भरता बताता है अगर आपके पास इतना समय हो तो आप उसे पढ़कर अंदाजा लगा सकते हैं। अगर आप किसी न्यूज चैनल, अखबार, मीडिया हाउस की निर्भरता का पता लगा लेंगे तो उसे पढ़ने में समझने में आपकी निर्भरता कम जाया होगी लेकिन आपके पास इतना समय कहां है कि आप पूरा अखबार भी पढ़ सकें। आपको तो 15 सेकेंड में पूरी जानकारी चाहिए। मुफ्त की चीजें कितनी निष्पक्ष हों, आप खबरों के लिए पैसा देना नहीं चाहते, अगर मोबाइल पर खबरें पढ़ रहे हैं तो उसका सब्सक्रिप्शन नहीं लेना चाहते। पैसा पढ़ने वाला नहीं देगा तो निर्भरता उस पर कैसे रहेगी। अच्छा पढ़ना है, खुद पर मीडिया को निर्भर रखना है तो खर्च करना सीखिए नहीं तो पत्रकारिता तो किसी ना किसी पर निर्भर होना सीख ही गई है।

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