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बियॉन्ड न्यूज : पत्रकारिता , चाटुकारिता, ऑफिस पॉलिटिक्स और इस पेशे का स्याह पक्ष दिखाने वाली किताब है।

किताबा बियॉन्ड न्यूज

बियॉन्ड न्यूज 168 पन्ने की इस किताब को कम से कम पत्रकारों को तो पढ़ना ही चाहिए। इस किताब के पन्ने में आप अपने कई अनुभव पायेंगे जो आपके या आपके किसी कलीग के साथ हुए हैं। कैसे खाने और गिफ्ट की व्यवस्था पर एक ही संस्था के कई पत्रकार जमा हो जाते हैं।  यह अनुभव आपको भी होगा और किताब में बड़े ही रोचक ढंग से इसे प्रस्तुत किया गया है। पत्रकारिता में राजनीति, संपादक से नजदीकी के महत्व को भी शानदार ढंग से समझाया गया है। यह भी समझाया गया है कि कैसे संपादक के बदलने से न्यूज रूम का वर्किंग कल्चर ही बदल जाता है। कैसे पत्रकार खबरों से समझौता करने लगते हैं। कैसे एक पत्रकार अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहता है। 

मुलत:  तीन पत्रकारों के अनुभव के निचोड़ की यह किताब  पत्रकारिता को और नजदीक से समझने का अवसर देती है।  किताब यह भी सीखाती है कि  ईमानदारी और मेहनत से काम का परिणाम मिलता है लेकिन समझौते और पीछे हटने से आपकी तरक्की और उपलब्धियां भी पीछे हटने लगती है। संजय को पहली नौकरी से तंग किया गया, ऐसे एसाइनमेंट में भेजा जो उसे पसंद नहीं थे। मन मसोह कर वह काम करता रहा लेकिन यही काम उसे नए अवसर देते रहे। अगर उसे भी उन दो लोगों की तरह माथे पर बैठाकर रखा जाता तो उसके हाथ बड़ी खबरें नहीं लगती। इस खराब समय ने संजय के लिए इतना अच्छा तो कर दिया कि उसकी लेखनी की चर्चा होने लगी। किताब सिखाती है कि कैसे अपने बुरे समय में भी बेहतर करने का प्रयास आपके लिए इस बुरे समय को अच्छे में बदल देता है। 

किताब भले ही दशकों पुराने अनुभव के आधार पर लिखी गयी हो लेकिन इतने सालों के बाद भी पत्रकारिता में कुछ स्थितियां जस की तस हैं। न्यू मीडिया और सोशल मीडिया ने आज लोगों के हाथ मजबूत जरूर किए हैं लेकिन कई चुनौतियां भी दी है। पत्रकारों की भीड़ इस वजह से बढ़ी है तो जाहिर है कि पहले की अपेक्षा में रानजीति भी इस पेश में अब ज्यादा है। पहले इसे लेकर संशय था कि अखबार एक प्रोडक्ट बनता जा रहा है। अब साफ है कि अखबार अब एक प्रोडक्ट बन गया है। संजय कैसे प्रिंट से होता हुआ टीवी तक पहुंचा और कैसे टीवी चैनल का बाजार कुछ ही समय में सिमट गया। इस पेशे में आज भी यही संकट है कि आज नौकरी है, कल है या नहीं, पता नहीं। 

मैं रांची में लगभग 12 सालों से पत्रकारिता कर रहा हूं मेरे आंखों के समाने कितान पढ़ते वक्त कई रिपोर्टर, फोटोग्राफर गुजर गये जिन्होंने इस पेशे को अपना सबकुछ दिया लेकिन बदले में उन्हें कुछ नहीं मिला। कोई फोटोग्राफर डोमिसाइल आंदोलन के वक्त घायल हुए, तो कोई रैली मोर्चा कवर करते वक्त पुलिस की बर्बरता का शिकार हुआ। कई बार पुलिस की लाठियां पत्रकारों पर सिर्फ इसलिए पड़ती है क्योंकि उनके कैमरे का लैंस वो सच भी दिखाता है जो उसे दिखना नहीं चाहिए। कैमरा इंसान तो है नहीं कि किसी दबाव में आ जाए। ज्यादार पत्रकारों ने अपने जीवन में कभी ना कभी कोई ना कोई ऐसी स्टोरी की है जिसमें जान का खतरा है। संजय और सजल भी ऐसी ही रिपोर्ट से होकर गुजरे हैं। इस पेशे पर पत्रकारों को भले भरोसा रहा हो, घरवालों को नहीं रहा। संजय की पत्नी इस लिए इस पेश की पेचिदगी समझती रही क्योंकि उसने पत्रकारिता पढ़ी। 

संजय के साथ सजल भी अपने अनुभवों से बहुत कुछ सीखाते हैं। कैसे उन्होंने एक समय के बाद अपना पूरा समय परिवार को दिया और इस समय का परिणाम ही रहा कि उनकी बेटी डीएम बनी। पिता को कितना गर्व हुआ कि उसने अपना समय, सही समय पर, सही जगह निवेश किया और कभी-कभी अकेले बैठकर यह सवाल भी जरूर करते होंगे कि पत्रकारिता को जो समय दिया उसके बदले मिला क्या? जैसे संजय की खबर मुंगफली वाले के लिए ठोंगे का काम करती है वैसे ही पत्रकार कितना भी बड़ा हो अगर वह बाजार में नहीं है तो लोग उसे भूल भी जाते हैं। 

अंजान शहर, दफ्तर, कंपनी और नौकरी बदलता रहा जहां समझौता करना था वहां करता भी रहा और आज भी सफर में है। बस इस सफर में उसके दो दोस्त आगे निकल गये। संजय ने यह सोचा की जब बाजार में प्रोड्क्ट ही बेचना है तो “सेल्समैन” पत्रकार बनने से बेहतर है कि इस पेशे से ही किनारा कर लिया जाए। इस निर्णय ने संजय को बड़ी कंपनी के जिम्मेदार पद पर ला दिया। संजय इस किताब में यह समझाते हैं कि कैसे मजदूरों का विरोध कभी विरोध नहीं होता, उन्हें कितने भी पैसे दे दो हमेशा उन्हें ज्यादा की उम्मीद होगी। ये बात अलग है कि जमशेदपुर में जब वह इस मामले पर रिपोर्टिंग करना चाहता था तो उसके संपादक ने ही उसे यह बात कही थी, उस वक्त उसे ये पसंद नहीं आई थी लेकिन समय और बदले वक्त में पाला बदल जाता है। पहले संपादक को कोई बड़ी कंपनी का अधिकारी रोकता था तभी संजय को कभी इस तरह के खबर को करने की इजाजत नहीं मिली। आज संपादक को संजय कंपनी के खिलाफ किसी भी निगेटिव न्यूज को कवर करने के लिए रोकता है।

इस किताब को लिखने वाले शक्ति व्रत और संजीव शेखर को पत्रकारिता का लंबा अनुभव है। दोनों के द्वारा लिखी गई इस किताब ने पत्रकारों के लिए कई महत्वपूर्ण सवालों, शंकाओं का समाधान प्रस्तुत किया है। इंसान दो चीजों से सीखता है एक अपने अनुभव से और दूसरा दूसरों के अनुभवों से जो दूसरे के अनुभवों से सीखता है, वह अपने जीवन में उन सारे बुरे अनुभव को महसूस करने से बच सकता है। इस किताब के लेखक संजीव शेखर आज एक सफल कॉरपोरेट प्रोफेशनल है और बड़ी कंपनी में कॉरपोरेट अफेयर्स और कम्युनिकेशन की जिम्मेदारियों का सफलतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं। दूसरे लेखक शक्ति व्रत से ज्यादा परिचय तो नहीं लेकिन इतना यकीन से कह सकता हूं कि आज वो भी सुकून भरा जीवन जी रहे होंगे और किसी अच्छी जगह बैठकर दूसरी किताब लिखने की योजना बना रहे होंगे। इस कहानी के पात्रों को और नजदीक से समझने के लिए संजय की दिखाई नजरों से धृतराष्ट्र की तरह मत देखिएगा, आपकी अपनी आंखे हैं, किताब के बताए रास्तों तक पहुंचकर थोड़ी बहुत पड़ताल करेंगे,  तो असल किरदार आपके सामने होंगे।

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