शहर और मेरे गांव की होली |
12 साल का एक बच्चा गांव की धूल भरी सड़क पर भाग रहा है। उसके साथ धोखा हुआ है। दोस्त जिनके भरोसे वो दुश्मन के इलाके में कूद गया, उसे मुसीबत में छोड़कर उल्टे पांव भाग गए। बच्चा खुद को बचाता हुआ दौड़ रहा उसने अपनी जेब मजबूती से मुट्ठी में पकड़ रखी है। उसे इसका भी ख्याल रखना था कि ऊपर वाली जेब में रंग की डिब्बी है, दौड़ते हुए गिरनी नहीं चाहिए। जब उसे लगा कि वह पकड़ा जाएगा, तो उसने गांव रास्ता छोड़ खेत और पगडंडियों की तरफ भागना शुरू किया। बहुत देर तक उसका पीछा होता रहा लेकिन वह इतनी तेज और इधर- उधर होकर भागा कि किसी तरह बचने में सफल रहा। इस बार जब वह अपने इलाके में पहुंचा तो पहले ही उसके साथी उसका इंतजार कर रहे थे। उसने वहां पहुंचते ही रंग की सारी डिब्बी दोस्तों के सामने रखते हुए कहा मेरा हो गया। धोखेबाजों में तुम्हारे भरोसे गया और तुम सब भाग लिए। मैं किस तरह बचकर निकला हूं, मैं ही जानता हूं। दोस्तों ने समझाया, फिर प्लानिंग बनी, पहले से ज्यादा मजबूत और इतनी भरोसे के साथ बार फिर सभी मिलकर उसी इलाके में गए जहां से कुछ देर पहले भागते वक्त मैं यह प्रार्थना कर रहा था भगवान आज बचा ले बस।
ये मेरे गांव की होली है। बचपन में होली की जिन यादों को अपने साथ लिए फिरता हूं, उसमें से एक यह भी घटना है। मेरा गांव बहुत बड़ा नहीं है। मुश्किल से 40 घरों का एक छोटा सा गांव है। घर से कुछ दूर पर एक नदी बहती है। गांव में ज्यादातर मकान कच्चे हैं। हर साल होली और दिवाली में गांव हमारा इंतजार करता था। मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि गांव की होली का मजा दुनिया के किसी कोने में नहीं है। हम बच्चे पहले अपने इलाके में एक दूसरे को रंग लगाते। भागते- भगाते जिसे रंग लगा लिया उसके साथ अपनी एक टीम बन गई सभी रंगाए पुताए लोग एक तरफ। हम सभी मिलकर गांव के बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी नहीं छोड़ते। रंग भरा पानी किसी पर फेक देते तो किसी की पीठ पर पंजे का निशान लगाकर खुश हो जाए। कोई बड़ा जब मना करता कि अभी फंला काम से जा रहा हूं.. अभी नहीं आधे घंटे बाद। हम तुरंत दौड़कर दूसरे रास्ते से उससे आगे निकलते और दूसरे दोस्तों को रंग देकर अचानक उस पर धावा बोलवा देते। हम दिवार के पीछे खड़े रहते। जब गांव के हमारी उम्र के सभी बच्चों को रंग लग जाती तो हमारी दो टीम बन जाती। एक टीम जो दूसरे टीम के लोगों को टारगेट करती। बस यही भाग दौड़ चलती रहती पूरे दिन ।
गांव में दोपहर होते – होते बड़े लोगों की टीम निकलती थी। उसमें मांदर, ढोलक, नगाड़ा सब होता था। गांव के हर घर तक वो टोली पहुंचती। गांव में हमारा एकलौता ब्राह्मण परिवार था ये टोली वहां पहुंचकर बड़ी सभ्यता से बड़ों के पैरों में रंग लगाती। हर घर से अनाज या पैसे लिए जाते। हम उम्र के साथ कभी-कभी ये टोली बच्चों की तरह हो जाती थी। कुछ लोग घर के दरवाजे बंद कर लेते थे तो इस टोली में से कुछ खप्पर खोलकर घर के अंदर प्रवेश कर जाते। कुंडी खुल जाती फिर अलग बवाल। हम भी इस टोली के साथ होते थे और अपनी उम्र के बच्चों को टारगेट करते थे।
शाम पांच बजे तक यह चलता था। हम देर तक इसलिए टिके रहते थे क्योंकि कई बच्चे बड़ी मुश्किल से रंग छुड़ाकर नदी से निकलते और हम उन्हें दोबारा रंग लगा देते। दोबारा रंग लगाना है या नहीं यह रिश्ता तय करता था। किसी से अच्छी नहीं बनती तो उसे किसी भी तरह पकड़कर रंग लगाना है। अगर किसी से बनती है तो हमें देखकर भागेगा नहीं हाथ जोड़े खड़ा हो जाएगा। उसे भरोसा है कि उनका आग्रह स्वीकार भी कर लिया जाएगा। जिस अपने रिश्ते पर ही भरोसा नहीं वो तो भागेगा। अगर किसी के माता- पिता या बड़ा कोई साथ है तबतक हम चाहकर भी नहीं लगा पाते ऐसे में फिर किसी दिवार में छिपकर रंग फेंकने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था। ऐसे में वो बड़ा भी चपेट में आ जाता था यह बड़ा जोखिम भरा काम था क्योंकि इसमें मां तक शिकायत पहुंचने का खतरा था। शाम के बाद नहाकर अच्छे कपड़े पहनते थे और अबीर का चलन था। दूसरों के घर जाकर पुआ, दही बड़े खाने का मजा ही कुछ और था।
मैंने कई बार जानना चाहा कि जो पैसे और अनाज टोली जमा करती है उसका क्या होता है। मुझे पता चला कि होली से ज्यादा हमारे गांव में बासी की परंपरा है। होली के एक दिन बाद बासी होली मनाई जाती है। इस दिन जमा पैसे और अनाज का टोली में शराब पीने वाले लोग जमकर शराब पीते हैं और गांव में जिनके घर पर अखरा होता है वहां जमकर होली गाई जाती है। डमकच होता है हालांकि ये कब कहां और कैसे आयोजित होता है यह बच्चों तक कभी पहुंचता नहीं था हम तो बस रास्ते में उन लोगों से टकराते जो डमकच खेलने जाते थे या खेलकर आते थे।
मुझे वो होली याद आती है। बचपन याद आता है। आज भी मैं जहां रहता हूं वो 40 घरों से ज्यादा बड़ी बिल्डिंग होगी लेकिन वो गांव वाला लगाव महसूस नहीं हुआ। हमारे बगल वाले फ्लैट में कौन है, उसके परिवार में कितने लोग हैं मालूम नहीं पड़ता। शहर के संबंध बेमतलब के नहीं होते और जब संबंध ही नहीं तो इन त्योहारों का मतलब क्या है। हां पूरी सोसाइटी मिलकर होली मिलन आयोजित करती है। गाने बजते हैं,डांस होता है लेकिन इन सबके बीच मुझे मेरा गांव याद आता है। वो बच्चा याद आता है जो उस दिन बस किसी तरह खुद को बचा लेना जाहता था।
कभी- कभी सोचता हूं त्योहार में गांव चला जाऊं लेकिन मेरे वो सारे दोस्त जो मेरी टीम का हिस्सा थे। खुद गांव से दूर हैं। मेरे गांव से ज्यादातर लोग अंडमान कमाने निकल गए हैं। एक गया फिर दूसरे को ले गया इस तरह गांव के लगभग सभी युवा काम की तलाश में पंजाब, दिल्ली या दक्षिण में काम कर रहे हैं। गांव में लोग ही नहीं जाऊं भी किसके पास। मेरा पूरा परिवार जो त्योहार में इकट्ठा होता था अब बिखर गया है। सबके पास अपनी मजबूरियां है, तर्क है। असल वजह है गांव ना आ पाने की। गांव का घट खंडहर हो रहा है। छह महीने में एक बार जा पाता हूं तो बस इतना करके लौट पाता हूं कि वो टूटकर ना गिर जाए।
जरा सोचकर देखिए वो टिका भी किसके कांधे पर है। गांव की वो दिवार जो चुने से पोती गई थी होली के दिन हाथ और ना जाने कैसे- कैसे रंग और आकृतियों से भरी रहती थी। वो कोरी दिवारें क्या राह नहीं देखती होगी। गांव की वो पगडंडी, वो खेत वो टोली क्या राह नहीं देखती होगी। वक्त बदला जरूर है । पूरी की पूरी एक पीढ़ी गुजर गई लेकिन एक नई पीढ़ी तैयार है.. जो गांव के उसी आनंद को महसूस करेगी, वैसे ही दौड़ेगी। गांव की वो कोरी दिवारों पर फिर रंग चढ़ेगा। बस कुछ वक्त और कुछ वक्त और….
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