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मैं रवीश को पुरस्कार मिलने पर उत्साहित नहीं हूं

मेरे फैन मत बनिये, मुझमें कमियां दिखती हैं .तो आलोचना कीजिए, फैन आप फिल्मस्टार के ही बनिये ,तो बेहतर है. भक्त और भगवान का रिश्ता एक ही है . अगर आप किसी पार्टी या नेता के भक्त होते हैं तो पार्टी और नेता आपके लिए भगवान हो जाती  है. रवीश कुमार जब ये कहते थे, तो मैं हमेशा सोचता था कि एक सच्चा आदमी ही ये बोल सकता है. 

कई नये पत्रकारों को संबोधित करता हुआ उनका लेख भी मैंने कई बार पढ़ा है ,जिसमें वह स्पष्ट लिखते हैं कि प्राइम टाइम के एंकर को देखकर अगर आप पत्रकारिता शुरू करना चाहते हैं या उन जैसा बनना चाहते हैं, तो आप पत्रकारिता मत कीजिए.

 मैं पुरस्कारों के बारे में ज्यादा नहीं जानता लेकिन जब आज  पता चला  कि उन्हें रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार मिला है, तो लगा कि आज कुछ लिखना चाहिएो. गफलत में मत रहियेगा  उनके बारे में या  उनके सफर के बारे में नहीं लिख रहा हूं, अपने अनुभव के बारे में लिख रहा हूं  जो मैंने उनसे सीखा है. यह सब लिखने से पहले मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं उनका भक्त नहीं हूं, फैन नहीं हूं लेकिन एक पत्रकार होने के नाते मुझे उनकी कई स्टोरी ऐसी लगी जिसे देखकर लगा कि एक पत्रकार का काम  यही तो है.

हमारी हिंदी पट्टी की पत्रकारिता में बड़ो को यानि वरिष्ठ पत्रकारों को भैया कहकर बुलाने की परंपरा है, कब से चली आ रही है, कैसे शुरू हुई पता नहीं लेकिन इतने सालों तक रहकर यह समझ गया हूं कि यह सम्मान देने के लिए है. रवीश को भैया कहने लगूंगा तो आप में से कई लोग जो उन्हें पसंद नहीं करते या करते हैं  लेकिन जाहिर नहीं करते मेरी आलोचना करने लगेंगे इसलिए उन्हें सर ही कहूंगा. मुझ जैसे लोग जो पत्रकारिता में कुछ करना चाहता  है, अच्छी स्टोरी तलाशना चाहते हैं , रवीश उनके लिए सर ही हैं.

 मैंने आठ सालों के इस कम वक्त के करियर में कई चीजें देखी हैं, हम उस युग में हैं, जहां पत्रकार नेता का प्रवक्ता हो जाता है, हम उस युग में हैं जहां पत्रकार नेता के साथ तस्वीर लेने के लिए उत्सुक रहता है, हम उस युग में हैं जहां पत्रकार नेता से घी और मक्कखन में लिपटे सवाल पूछता है. हम उस युग  में हैं जहां पत्रकारिता अब व्यापार है, घाटे और मुनाफे का सौदा है लेकिन रवीश भी इसी युग में हैं.

हम उनसे सीखते हैं कि इस दौर में भी कैसे पत्रकारिता जिंदा रखी जा सकती है, हम उनसे सीखते हैं कि किसान, युवा, गरीब, जल, जंगल, जमीन से जुड़े कई मुद्दे हैं जिन पर स्टोरी की जा सकती है. हम उनसे सीखते हैं कि जनहित के मुद्दों पर पत्रकारिता कैसे की जाए, कैसे सवाल किया जाए. मैं उनके पुरस्कार मिलने पर उत्साहित नहीं हूं और ना ही मुझे इससे ऊर्जा मिली है. मैं उनके काम से, बेरोजगारों पर की गयी सीरीज से, बैंक पर की गयी सीरीज से और कई असल मुद्दों पर की गयी रिपोर्टिंस से  उत्साहित होता हूं, रास्ते ढुढ़ता हूं. 

रवीश का होना या रवीश जैसे पत्रकारों का होना मुझ जैसे चंद पत्रकारों के लिए जरूरी है जिनके अंदर अब भी जनहित की पत्रकारिता करने की चाह है, मैं उन्हें हमेशा इसी उत्साह के साथ काम करते देखना चाहता हूं, मां- बहन की गालियों के बावजूद गालियां देने वालों पर उनका लिखा पढ़ना चाहता हूं लेकिन रवीश नहीं होना चाहता मैं उनसे  “पंकज” कैसे रहा जाए ये रहना सीखना चाहता हूं.     

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