झारखंड विधानसभा जब काम कर रहा होता है तब उस रास्ते जाने वाला फाटक बंद कर दिया जाता है. फाटक के थोड़ा पहले अनशन, विरोध और हक की आवाज उठाने वाले बहुत होते हैं. हर बार जब विधानसभा सत्र की शुरूआत होती है, तो इन रास्तों पर टैंट और पंपलेट ही पंपलेट देखने को मिलते हैं. क्या सच में लोकतंत्र में विरोध सिर्फ नाम का रह गया. काम की सिर्फ राजनीति या विधायक और सांसद की कुर्सियां है. हमारी ( आम जनता) की आवाज झारखंड विधानसभा के उस गेट के आगे क्यों नहीं जा पाती. बात सिर्फ झारखंड विधानसभा की नहीं है .मैं इसकी बात इसलिए भी कर रहा हूं क्योंकि मैंने गेट बंद होना, लोगों का विरोध देखा है. उनकी आवाज कितनी सुनी गयी इसका कोई हिसाब नहीं है मेरे पास, लेकिन राज्यसभा और विधानसभा के सामने लगे टेंट मुझे इशारों में कह देते हैं, बेटे हमारी हालत जानने के लिए तुम्हें आकड़ों की जरूरत नहीं. शिक्षकों का मामला हो, स्थानीयता का मामला हो, बिजली , सड़क , खाद्य आपूर्ति या कोई भी मामला हो विरोध का तरीका वही होता है.
दिल्ली में दामिनी गैंगरेप याद है आपको, कितना विरोध हुआ था. लाठीचार्ज , वाटरकैंन, टियरगैस याद है आपको, जरा सोचियेगा इस विरोध ने क्या बदला और अगर आपको याद ना हो, तो इंटरनेट पर दुष्कर्म के आकड़ें मिल जायेंगे. पूरे देश की छोड़िये सिर्फ दिल्ली के देख लीजिएगा कितने दुष्कर्म हुए. अगर ये भी ना हो तो नेताजी के बयान पढ़ लीजिए. आज ही कांग्रेस नेता रणुका चौधरी का एक बयान पढ़ा, कांग्रेस की बड़ी नेता है कहतीं है दुष्कर्म होते रहते हैं, ये बयान भी उसी दिल्ली में उन्होंने दिया जहां आपने लाठियां खायीं.
एक और विरोध प्रदर्शन याद दिलाता हूं, अन्ना हजारे दूसरे गांधी कहे जाते हैं अगस्त क्रांति का वो दौर अच्छी तरह याद है जब मेट्रो शहर से होते हुए अन्ना की आवाज गांवों तक पहुंच गयी थी. जनलोकपाल की मांग को लेकर आंदोलन इतना तेज था सोशल मीडिया पर अन्ना के अनशन की तस्वीरों के साथ जोरदार मैसेज चलते थे. आंदोलन का रूप धीरे- धीरे राजनीतिक होता गया. अन्ना को साइडलाइन करते हुए अरविंद केजरीवाल ने कब इस मुद्दे को हाईजैक कर लिया पता ही नहीं चला. आंदोलन में कई लोग शामिल थे, जिनके रास्ते अब अलग है. किरण बेदी ने जेल से अन्ना के मैसेज को वायरल किया था, उनकी इस मेहनत ने उन्हें भाजपा की तरफ से राजभवन पहुंचा दिया. शांति भूषण, प्रशांत भूष और योगेन्द्र यादव अब एक अलग पार्टी खड़ी करने की कोशिश में है. साजिया इल्मी भाजपा की तरफ से टीवी पर लड़ती हैं.
अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी का प्रमुख चेहरा हैं. दो पदों पर बने हुए हैं. विधायकों की सैलरी बढ़ा दी गयी है. अब आंदोलन खत्म है और राजनीति हो रही है. आरोप लग रहे हैं, भ्रष्टाचारियों का बचाव खुलकर किया जा रहा है. आंदोलन के मुद्दे ढंडे बस्ते में है. संभव है कि चुनाव के वक्त उस पिटारे को फिर खोला जाए. ठंड में सड़क पर सोते केजरीवाल का सपना सिर्फ मुख्यमंत्री की कुरसी थी या बड़े राजनीति पार्टी को खड़ा करके सारे आंदोलनकारियों को राजनीति में लाने का कहना मुश्किल है. लोकसभा में जब पार्टी कूदी तो चुन- चुन कर वैसे लोगों को टिकट दिया जो आंदोलनकारी के रूप में पहचाने जाते हों. , दयामनी बारला , मेघा पाटकर जैसे कई नाम शामिल थे. खैर वो लोग राजनीति में सफल नहीं रहे अब फिर जाकर अपनी आंदोनकारी वाली कुरसी पर बैठ गये हैं. अब विधानसभा चुनाव में भी राजनीतिक आंदोलन की शुरूआत हो रही है. आंदोलन का रास्ता अगर राजनीति तक जाता है, तो अंदोलनकारी की पहचान उस खुराक की तरह है जो आंदोलनकारी को एक नेता के रूप में बदलने के लिए बेहद जरूरी है.
एक सवाल छोड़कर जा रहा हूं क्या नेता बनने के बाद उन मुद्दों को सुलझाने की टीस रहती है , अगर रहती भी है तो आपको सहयोगी मंत्रियों का समर्थन मिलता है, अगर राज्य में समर्थन मिल भी गया तो ऐसे मुद्दे जो केंद्र से जुड़े हैं उसमें केंद्र का सहयोग मिलता है, अगर प्रधानमंत्री का सहयोग मिल भी जाए तो क्या पूरा कैबिनेट एक मत होता है. कुल मिलकार सवाल ये कि0 आपको लगता है इरोम का सपना पूरा होगा. अगर होगा तो कैसे राजनीति से या मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उनके विरोध से.
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