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Dhamaka Movie Review: टीवी पत्रकारिता और रेटिंग की लड़ाई समझाती है फिल्म “धमाका”, वक्त निकाल कर देखिये…

Dhamaka Movie Review:

प्राइम टाइम में टीवी पर रोते- चीखते चिल्लाते एंकर कभी – कभी नेशन को वो नहीं बताते जो नेशन सच में वांट टू नो.. फिल्म धमाका में ऐसे ही एंकर्स को  एक्टर बताया गया है. टीवी पत्रकारिता पर कई गहरे और गंभीर कटाक्ष करती फिल्म आपको संवादों के जरिये भी बहुत कुछ समझाने की कोशिश करती है. फिल्म के एक संवाद में कहा गया एंकर एक्टर होते हैं और दर्शकों को ड्रामा पसंद हैं. आप भी दर्शक हैं फिल्म के इस सवाल का जवाब खुद में तलाशने की कोशिश कीजिएगा.

 एक और संवाद आपके दिमाग में छाप छोड़ देता है जिसमें एंकर कहता है टीवी पर जो चल रहा है वो सच नहीं है. इस पर टीवी चैनल की बॉस कहतीं है वो सच नहीं न्यूज है. कैसे टीवी लोगों को अचानक लोकप्रिय कर देता हैं और कैसे तुरंत सब खत्म करने की ताकत रखता हैय  इस फिल्म से समझा जा सकता है.  धमाका नेटफिल्क्स पर उपलब्ध है और आज के दौर की टीवी  पत्रकारिता को इसके माध्यम से समझ सकते हैं, अगर आप इस पेशे में नहीं है. पत्रकार इसे इस फिल्म से ज्यादा बेहतर समझते हैं.

Dhamaka Movie Review

 फिल्म ये भी समझाती है कि कैसे एक साधारण व्यक्ति टीवी पर आ रही सभी बातों पर आंखे बंद करके भरोसा करता है. टीवी पर आ रही हर रिपोर्ट पर आंख बंद करके भरोसा करता है क्योंकि उसे अपने एंकर पर भरोसा है. फिल्म यह भी समझाने की कोशिश करती है कि सिर्फ सच और झुठ नहीं होता सच और झुठ के बीच न्यूज भी है जो ना, तो पूरी तरह सच और ना ही पूरी तरह झुठ. टीवी रेटिंग के लिए कैसे खबर को उसके पेश करने के अंदाज को बदलकर रख दिया जाता है  

फिल्म हम जैसे पत्रकारों को चिंतित भी करती है कि क्या फिल्म का असल संदेश लोग समझ सकेंगे. आज के वक्त में जहां पत्रकारिता में विज्ञापन, रेटिंग और चटपटी खबरों से  मनोरंजन ही मायने रखता है,  खबरों का उनके सरोकार का क्या होगा ? फिल्म एक बार देखी जा सकती है. वक्त मिले तो दो घंटे से कम की फिल्म है जरूर वक्त निकाल कर देखिये  

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