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नवरात्र में शोक मानती है झारखंज की यह असुर जनजाति, महिषासुर की करते हैं पूजा

महिषासुर की पूजा 

नवरात्र की आज से शुरुआत हो गयी। आस्था उपवास, पूजा के साथ नव दिन मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा होगी। इस बीच आप झारखंड के कई अखबारों में सिंगल कॉलम में शायद खबर देख पायेंगे कि झारखंड में महिषासुर शहादत दिवस भी मनाया जाता है। अखबार में ना भी देख पायें तो कई ऑनलाइन न्यूज वेबसाइट में तो यह खबर आपको दिखेगी ही। क्योंकि यहां मामला पेज व्यूज का होता है और ऐसी खबरें लोग पढ़ना पसंद करते हैं। 

हम सभी…. शायद सभी बोलना ठीक नहीं होगा तो ज्यादातर लोग  महिषासुर को दैत्य मानते हैं  लेकिन पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखंड समेत पांच राज्यों में फैली कुछ जनजातियां महिषासुर को एक महान राजा मानती हैं। 

सुषमा खुद को मानती हैं असुर 

कुछ जनजातियां खुद को उनका वंशत भी मानती हैं। 

असुर जनजाति झारखंड के गुमला, लातेहार, लोहरदगा और पलामू जिलों में हैं। असुर और सांथल रीति रिवाजों में महिषासुर की पूजा होती है। दुर्गा पूजा-विजयादशमी हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है लेकिन  झारखंड सहित कई राज्यों में फैली ये जनजाति  शोक मनाती है। इस समाज में मान्यता है कि महिषासुर ही धरती के राजा थे, जिनका संहार छलपूर्वक कर दिया गया. ये जनजाति महिषासुर को ‘हुदुड़ दुर्गा’ के रूप में पूजती है। 

नवरात्र में शोक मानती है यह जनजाति 

नवरात्र से लेकर दशहरा की समाप्ति तक ये जनजाति शोक में रहती है। इस दौरान किसी तरह का शुभ समझा जाने वाला काम नहीं होता. इस जनजाति के लोग घर से बाहर तक निकलने में परहेज करते हैं

इनकी कथाओं में है कि दुर्गा ने धोखे से महिषासुर को  चाकू मार दिया था, क्योंकि उसे यह वरदान मिला था कि कोई भी आदमी उसे हरा नहीं सकता था। 

इस प्रकार असुर समुदाय महिषासुर की मृत्यु का शोक मनाने के लिए हिंदू कैलेंडर माह आश्विन की पूर्णिमा की रात को इकट्ठा होते हैं। पूजा करते हैं शोक मनाते हैं। 

असुर की पूजा करती है यह जनजाति 

कब होती है असुर पूजा 

आश्विन पूजा या असुर पूजा साल में दो बार मनाई जाती है, एक बार फागुन (मार्च) के महीने में और दूसरी बार आश्विन महीने के दौरान जो सितंबर-अक्टूबर में पड़ता आता है। 

पिछले कुछ सालों से इसकी खूब चर्चा रही है। 2016 में, एक सामाजिक कार्यकर्ता सुषमा असुर, झारखंड के 10 अन्य लोगों के साथ, अपनी पहचान के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए कोलकाता की सड़कों पर उतरीं। उन्होंने कहा, ”मैं पंडाल के अंदर नहीं जाऊंगी, यह हमारे लिए शोक मनाने का समय है।

महिषाशूर शहादत दिवस 2016 में तब सुर्खियों में आया जब केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में विवाद के बाद संसदीय बहस में इसे उठाया। 

कैसे शुरू हुई दुर्गा पूजा 

दुर्गा पुजा के संबंध में जो इतिहास बताता है वो ये कि  18वीं शताब्दी में, 12 लोग हुगली में एक साथ आए और पहली सामुदायिक पूजा (जिसे बारोआरी पूजा के नाम से जाना जाता है) का आयोजन करके त्योहार को सार्वजनिक क्षेत्र में लाया और इस तरह सांस्कृतिक उत्सव का जन्म हुआ जो दुर्गा पूजा में बदल गया। आज देश के कई राज्यों में यहां तक की विदेशों में भी दुर्गा पूजा धूमधाम से मनाया जाता है। इसे बुराई पर अच्छाई की, सत्य पर असत्य की और अंधेरे पर रोशनी की जीत के तौर पर देखा जाता है। 

महिषासुर को राजा मानते हैं यह लोग 

देश के इन राज्यों मे असुर 

झारखंड में  नेतरहाट की पहाड़ियों पर बसे असुर आदिवासी विजयादशमी (दशहरा) को महिषासुर की पूजा करते हैं।  झारखंड के पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल के पुरुलिया ज़िले के काशीपुर प्रखंड में भी होती है. साल 2011 से महिषासुर का शहादत दिवस मनाया जा रहा है। 

गुमला जिला अंतर्गत डुमरी प्रखंड के टांगीनाथ धाम को महिषासुर का शक्ति स्थल मानती है। प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की भी पूजा करने की परंपरा आज भी जीवित है। गुमला जिले के बिशुनपुर, डुमरी, घाघरा, चैनपुर, लातेहार जिला के महुआडाड़ प्रखंड के इलाके में भैंसा की पूजा की जाती है।

असुरों की कहानी 

इनकी अपनी कहानी है, अपना तर्क है।  सुषमा असुर बताती हैं कि  महिषासुर का असली नाम हुडुर दुर्गा था. वह महिलाओं पर हथियार नहीं उठाते थे. इसलिए दुर्गा को आगे कर उनकी छल से हत्या कर दी गई। ‘मैंने स्कूल की किताबों में पढ़ा है कि देवताओं ने असुरों का संहार किया. हमारे पूर्वजों की सामूहिक हत्याएं की गयी हैं ‘हमारे नरंसहारों के विजय की स्मृति में ही हिंदू दशहरा जैसे त्यौहार मनाते हैं. इसलिए, हम अगर महिषासुर की शहादत का पर्व मनाएं, तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए.”

शिबू सोरेन ने कहा था रावण आदिवासियों के पूर्वज 

यह मामला सिर्फ विश्वास, आस्था और आदिवासी और स्वर्ण के बीच का नहीं है बल्कि राजनीतिक भी है,  साल 2008 की विजयादशमी में तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने रांची के मोराबादी मैदान में होने वाले रावण दहन के कार्यक्रम में शामिल होने से इनकार कर दिया था। उनका कहना था कि रावण आदिवासियों के पूर्वज हैं. वे उनका दहन नहीं कर सकते हालांकि हेमंत सोरेन कई बार दुर्गा पूजा, रावण दहन के कार्यक्रम में शामिल होते रहे। 

 झारखंड और आसपास के जिलों तक सीमित नहीं है, इसमें शामिल होने के लिए देश के कोने-कोने से लोग आते हैं उत्सव पहले से मनाया जाता रहा लेकिन   2011 से इसका आयोजन बड़े स्तर पर होने लगा है। 

कई राज्यों में मनाया जाता है महिषासुर शहादत दिवस 

झारखंड में 26 हजार असुर 

एक रिसर्च रिपोर्ट यह भी बताती है कि झारखंड और बंगाल में असुर आदिवासी प्रजाति के 26 हजार लोग हैं, जो महिषासुर को अपना देवता मानते हैं।

गुमला जिला अंतर्गत डुमरी प्रखंड के टांगीनाथ धाम को महिषासुर का शक्ति स्थल मानती है. प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की भी पूजा करने की परंपरा आज भी जीवित है. गुमला जिले के बिशुनपुर, डुमरी, घाघरा, चैनपुर, लातेहार जिला के महुआडाड़ प्रखंड के इलाके में भैंसे की पूजा की जाती है। 

असुरों का जिक्र 

ऋग्वेद, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद्, महाभारत आदि ग्रंथों में कई स्थानों पर असुर शब्द का उल्लेख हुआ है. मुंडा जनजाति समुदाय की लोकगाथा ‘सोसोबोंगा’ में भी असुरों का उल्लेख मिलता है.

असुर का रिश्ता  मोहनजोदड़ो और हड़प्पा संस्कृति से 

देश के चर्चित एथनोलॉजिस्ट सतीष चंद्र रॉय (  एससी राय )ने लगभग 85 साल से भी पहले  झारखंड में करीबन 100 स्थानों पर असुरों के किले और कब्रों की खोज की थी. असुर हजारों सालों से झारखंड में रहते आए हैं. असुरों को मोहनजोदड़ो और हड़प्पा संस्कृति से संबंधित बताया था। इतिहास जो भी कहता हो अहम मान्यता है। अब सवाल है कि हम मानें क्या सच क्या है। आस्था में कितने भी तर्क दे लें सबकी अपनी आस्था है, विश्वास है सबको उस पर चलने का अधिकार है। 

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