News & Views

Life Journey And journalism

1932 आधारित स्थानीय नीति और ओबीसी आरक्षण का फैसला : कहां – कहां फसेगा पेंच ?

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन 


1932 के आधार पर स्थानीय नीति लागू कर दी गयी. ओबीसी आरक्षण पर भी फैसला ले लिया गया. क्या झारखंड अब अपनी रफ्तार पकड़ सकेगा ? क्या सच में झारखंडियों को अपना अधिकार मिल गया ? सारे विरोध, सारे आंदोलन इस फैसले के बाद खत्म हो जायेंगे या यह फैसला एक बार फिर कोर्ट की दहलीज पर राज्य के विकास की रफ्तार को रोक देगा . 

आज झारखंड कैबिनेट ने कुल  41 प्रस्तावों को मंजूरी दी लेकिन खबर इन दो बड़े फैसलों को लेकर है. कैबिनेट के प्रस्ताव के बाद अब आगे क्या होगा ? आरक्षण को कैबिनेट की मंजूरी  मिली है लेकिन क्या राह होगी आसान ?1932 खतियान आधारित नीति में कौन- कौन सी समस्या आ सकती है ?

नारेबाजी, पटाखे, आभार यात्रा और मुख्यमंत्री को धन्यवाद देने के बाद इन सवालों के जवाबों की तलाश होगी. आइये हम कोशिश करते हैं इसे समय से पहले समझ सकें. 

आखिर स्थानीय कौन ? 

झारखंड के 21 सालों के इतिहास में सबसे बड़ा सवाल है आखिर स्थानीय है कौन ? जो भी सरकार आयी उसने अपने आधार पर बताया कि स्थानीय कौन है ? अब एक बार फिर स्थानीय होने की परिभाषा गढ़ी गयी है. इस परिभाषा की उम्र कितनी होगी, परेशानियां क्या – क्या आयेंगी. इस सवाल के जवाब के लिए शुरू से शुरू करने की जरूरत नहीं है. सबसे ताजा खबर पढ़िये समस्यां समझ आयेंगी और हल ?  कोर्ट तलाश रही है. 

 लोबिन हेंब्रम 

नियोजन नीति और नौकरियां 

सुप्रीम कोर्ट ने  साल 2016 में  राज्य सरकार की नियोजन नीति को असंवैधानिक करार  दिया है, लेकिन इस नीति से अनुसूचित जिलों में नियुक्त शिक्षकों की नियुक्ति को सुरक्षित कर दिया.  कहा कि आदिवासी बाहुल क्षेत्रों में शिक्षकों की कमी है.  शिक्षकों को हटाने का आदेश देते हैं, तो इससे वहां के छात्रों का नुकसान होगा.  इसलिए जनहित को देखते हुए उनकी नियुक्ति को बरकरार रखी जाती है. नियोजन नीति को झारखंड हाई कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से सरकार की नियोजन नीति को असंवैधानिक करार दिया था. कोर्ट ने कहा था कि इस नीति से एक जिले के सभी पद किसी खास लोगों के लिए आरक्षित हो जा रहे हैं जबकि शत-प्रतिशत आरक्षण नहीं दिया जा सकता.

कहां फसेगा ओबीसी आरक्षण का मामला ? 

आरक्षण को सिर्फ ओबीसी के आरक्षण के मामले से मत समझिये आपको साल 2019 में  लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य श्रेणी के लोगों के 10 फीसदी आरक्षण के पूरे विवाद पर भी नजर रखनी होगी.  संसद के दोनों सदनों से इस संबंध में संविधान संशोधन विधेयक पारित होने के बाद राष्ट्रपति ने भी इस पर मुहर लगा दी.  साल 2019 में एनजीओ समेत 30 से अधिक याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंच गये अब संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन किए जाने को चुनौती दी गई है. मामला अब भी चल रहा है. 

राज्य दे रहा है  कुल 77 प्रतिशत आरक्षण

अब आइये झारखंड में आरक्षण की स्थिति पर 1932 के खतियान के अलावा ओबीसी को झारखंड में 27 परसेंट आरक्षण देने के फैसले पर भी मुहर लगी तो  एससी को 12 प्रतिशत, एसटी को 28 प्रतिशत, अत्यंत पिछड़ा वर्ग को 15 प्रतिशत, पिछड़ा वर्ग को 12 प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के लिए 10 प्रतिशत यानी कुल 77 प्रतिशत आरक्षण.  सामान्य वर्ग के लिए 23 फीसदी सीटें बची हैं.

क्या कहता है कोर्ट 

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण का मामला चल रहा है.इसमें कहा गया किसी भी सूरत में आरक्षण का कुल प्रतिशत 50 से अधिक नहीं होना चाहिए. ना सिर्फ हाई कोर्ट बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने भी 1963-64 में एमआर बालाजी के मामले में  कहा था कि कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से कम होना चाहिए.  इसके बाद 1992 में इंदिरा साहनी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी परिस्थिति में कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए . इसके बाद 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण में सभी बिंदुओं पर विचार करने के बाद फैसला दिया था और आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की थी. मतलब इस मामले में विवाद अब भी चल रहा है इसलिए राह इतनी भी आसान नहीं होगी. मामला कोर्ट में जायेगा और आप अच्छी तरह समझते हैं कि कोर्ट के मामलों में सरकार की स्थिति क्या होती है हालांकि इस पूरे तर्क में तमिलनाडु में 68 फीसदी आरक्षण लागू है इसे जोड़ा जा सकता है. 

नियोजन नीति और बेरोजगार युवा 

स्थानीय नीति और नियोजन नीति की लेट लतीफी का  असर झारखंड के युवाओं पर पड़ा है. कई नौकरियों की परीक्षा पास करने के बाद भी युवा नेताओं के दरवाजे पर हाथ जोड़े खड़े हैं. नियोजन नीति को लेकर विवाद हुआ.  साल 2016 में नियोजन नीति बनी  विवादों में घिर गयी. 13 अनुसूचित जिला और 11 गैर अनुसूचित जिला के लिए अलग-अलग नीतियां बनायीं गयीं, जिसकी वजह से मामला फंस गया. 

बेरोजगार युवा और स्थानीय नीति 

28 तरह की नौकरियां अधर में लटक गई हैं और इस क्रम में 10 लाख से अधिक आवेदनकर्ताओं का भाग्य भी नीतियों पर टिका है.  राज्य के सभी सरकारी विभागों में स्वीकृत नियमित पदों में से 3.50 लाख पद खाली हैं. इनमें सबसे ज्यादा पद शिक्षा विभाग में खाली है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों सहित अन्य कर्मचारियों के खाली पड़े पद सरकार के कुल खाली पदों का 60.97 प्रतिशत है. 

अब 1932 आधारित स्थानीय नीति पर आइये 

आरक्षण का मामला समझ गये तो अब 1932 के खतियान आधारित स्थानीय नीति पर चर्चा कर लेते हैं.  खतियान की बात करें, तो इसकी तीन प्रतियां बनती है. एक जिला उपायुक्त के पास रहता है. एक अंचल के पास और एक रैयत के पास.  डीसी के अधीन रहने वाला खतियान अभिलेखागार में रहता है, वहीं अंचल के पास रहने वाला खतियान वहां के कर्मचारी के पास रहता है. आंकड़े अब कहां कितने सुरक्षित है इसे लेकर लंबे समय से सवाल खड़े हो रहे हैं. 

1932 के खतियान को आधार बनाने का सीधा अर्थ है कि उस समय के लोगों का नाम ही खतियान में होगा यानि 1932 के वंशज ही झारखंड के असल निवासी माने जायेंगे. 1932 के सर्वे में जिसका नाम खतियान में चढ़ा हुआ है, उसके नाम का ही खतियान आज भी है. रैयतों के पास जमीन के सारे कागजात हैं, लेकिन खतियान दूसरे का ही रह जाता है.

खतियान में सुधार में कई बाधाएं है. 1910, 1915 या 1935 में सर्वे सेटलमेंट के बाद तैयार अधिकर खतियान कैथी, बांग्ला या अंग्रेजी में ही है. बिहार के समय किए गए हिन्दी अनुवाद में भी काफी गलतियां हैं. इतना ही नहीं आर्काइव्स में रखे गये खतियान के कई पन्ने गायब हैं. इससे न तो खतियान का पूर्ण डिजिटलाइजेशन हो पा रहा और ना ही गलतियों का सुधार. 

राज्य में स्थानीय नीति तय हुई  साल 2002 में तत्कालीन बीजेपी मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने जब राज्य की स्थानीयता को लेकर डोमिसाइल नीति लाई. कई जगहों पर झड़प हुई.  झारखंड हाईकोर्ट ने इसे अमान्य घोषित करते हुए रद्द कर दिया.  2005 से 2014 तक बीजेपी के अलावा, जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी की भी सरकार रही, लेकिन स्थानीय नीति पर कोई फैसला नहीं हुआ. साल 2014 में रघुवर दास के नेतृत्व में बीजेपी की  सरकार बनी, तो रघुवर सरकार ने 2018 में राज्य की स्थानीयता कि नीति घोषित कर दी. 1985 के समय से राज्य में रहने वाले सभी लोग स्थानीय, तय हो गया. 

मामला अब  भले सुलझता दिख रहा हो लेकिन कैबिनेट के फैसले के बावजूद इसे लागू होने की राह इतनी आसान नहीं है.

इस पूरे विवाद के इतर झारखंड के साथ अलग हुए राज्य छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड की तरफ देखना चाहिए इन राज्यों ने समय रहते इस बड़े सवाल का जवाब तलाश कर लिया. कहा, 15 साल तक राज्य में निवास करने वालों को स्थानीयता के दायरे में रखा जाएगा. दोनों राज्य के विकास की तुलना झारखंड से की जा सकती है. झारखंड  जिसने अबतक अपने यहां के निवासियों का आधार  क्या होगा, तय नहीं कर सका भविष्य और विकास की रणनीति तय करने में कितना वक्त लेगा, आप अंदाजा लगा सकते हैं.  झारखंड से दूसरे शहर रोजगार की तलाश में जाने वालों की संख्या इस राज्य के असल संकट की तरफ इशारा करती है. 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *