पुष्पम प्रिया चौधरी |
बिहार चुनाव में अब जाना पहचाना चेहरा और नाम पुष्पम प्रिया चौधरी. आपको क्या लगता है चुनाव जीतेंगी या हार जायेंगी ? अभी से गणित के सारे फार्मूले लगाकर अपनी राय रख दीजिए, बाद में ये नहीं चलेगा कि अरे, हम तो बोले ही थे, हम तो जानते ही थे, ये तो होना ही था.. हम ही तो बोले थे.
हमारा गणित क्या कहता है ?
आपको हो सकता है समय लगेगा जोड़ने -घटाने में लेकिन हमारा गणित कमजोर होते हुए भी अभी से हम अपनी बात रख रहे हैं. गणित पूरे आर्टिकल में पढ़कर समझते रहियेगा. सीधे रिजल्ट लीजिए, कोई सस्पेंश नहीं कोई ड्रामा नहीं…. हां तो भैया हमारा गणित कहता है कि काली पोशाक में, विदेश से राजनीति पढ़कर आयी मैडम चुनाव हार जायेंगी. ये लिखते वक्त यकीन मानिये ये लग रहा है कि काश हमारे 9वीं की गणित की परीक्षा की तरह हमें इसमें भी जोरो मिलें. अब आप तर्क तलाशेंगे कि लड़का कहे जो रहा है लेकिन इसके पीछे तर्क क्या है ? कह तो दिया है कि पूरा गणित है. हो सकता है हमारा हिसाब गलत हो, आपके वर्जन का इतंजार रहेगा.
परिवार का इतिहास समझिये पहले
पुष्पम प्रिया चौधरी के दादाजी प्रोफेसर विद्वान आदमी, खूब पढ़ाकू नाम उमाकांत चौधरी. 1995 विधानसभा का चुनाव समता पार्टी के टिकट पर लड़े और हार गये. कई बार चुनाव लड़े और हारते रहे. पुष्पम मानती हैं कि उनके दादा जी के हार का कारण, बूथ कैपचरिंग, गुंडई थी . दादाजी जनता को मुफ्त में चीजें बांटने से परहेज करते थे, ना पैसा बांटा, ना शराब बांटी. साल 2005 के चुनाव में नीतीश चुनाव जीते लेकिन वह फिर हार गये. इस हार का उन पर असर पड़ा और 8 से 10 दिनों के बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनका निधन हो गया.
पिता बिनोद कुमार चौधरी ने भी चुनाव लड़ा. पहला चुनाव हार गये. उपचुनाव में मिली हार के बाद भी पार्टी ने भसोरा कायम रखा छह महीने बाद फिर चुनाव हुआ, तो जीते. 2014 में फिर चुनाव हार गये. बेटी पुष्पम प्रिया राजनीती में ना आयें पिता यह चाहते थे. पुष्पम जानतीं थीं कि वह रोकेंगे इसलिए समाचार पत्रों में जब खुद को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में घोषित किया, विज्ञापन दिया तो पिता को जानकारी नहीं दी.
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बिहार की राजनीति को समझते तो होंगे ?.
हम सिर्फ परिवार के इतिहास का जिक्र नहीं कर रहे ऐसा नहीं कि इसी आधार पर उनकी हार का अंदाजा लगा रहा है. बिहार की राजनीति भी समझना जरूरी है. गूगल पर पुष्पम प्रिया चौधरी के बारे में जो सबसे ज्यादा सर्च किया गया उसमें सबसे ऊपर क्या है जानते हैं, उनकी जाति. बिहार वो राज्य है जहां जातीय समीकरण के बगैर ना टिकट दिये जाते हैं, ना उम्मीदवारों का ऐलान होता है ना गठबंधन तय होता है.
प्लुरल्स पोल कमिटी की अनुशंसा पर बिहार विधानसभा चुनाव के प्रथम चरण के 71 क्षेत्रों के लिए 40 उम्मीदवारों की सूची जारी की जा चुकी है। 29 उम्मीदवारों की दूसरी सूची जारी की जा रही है। बक्सर और मोकामा की घोषणा कल। प्लुरल्स के सभी घोषित प्रत्याशियों को बधाई और शुभकामनाएँ। #सबकाशासन pic.twitter.com/SJilUeokYU
— Pushpam Priya Choudhary (@pushpampc13) October 6, 2020
इतना छोड़िये इतिहास याद रखते हैं तो इतना समझिये कि आजादी से पहले यहां जनेऊ आंदोलन हुआ, यादव सहित दूसरी जातीयों ने भी इस आंदोलन के बाद जनेऊ पहनना शुरू कर दिया जब जेपी आंदोलन हुआ तो यही जनेऊ तोड़ा भी गया. वक्त बदला राजनीति बदली लेकिन जाति पर खेल जारी है. अब पिछड़ा वर्ग सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाता है. चुनावी भाषणों में दलित, शोषित , पीड़ित, वंचित ये सब शब्द तो सुनते ही होंगे इनका क्यों इस्तेमाल होता है इसलिए नहीं कि नेताओं को इनके हित की चिंता है इसलिए की चुनाव इनके भरोसे ही तो जीते जाते हैं.
आइये आंकड़ा समझिये
मिला लीजिए सरकारी आंकड़ा है- , बिहार की आधी आबादी ओबीसी (पिछड़ा वर्ग) है. राज्य में दलित और मुसलमान की भी अच्छी संख्या है. और डिटेल समझना है तो थोड़ा पिछले चुनाव का जिक्र कर देते हैं आपके लिए पिछली बार राजद, जदयू औऱ कांग्रेस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा परिमाम सामने थे कारण क्या थे राजद -यादव वोट, जदयू- कुर्मी, कोईरी और कुशवाहा पिछड़े वर्गों का बोट नहीं बेटा. कांग्रेस थी तो मुसलमान वोट भी नहीं बटे नतीजा राजद को सबसे ज़्यादा 80 सीटें मिलीं.
और डीप समझना है फार्मूला ना .. ठीक है
जदयू को 71 और कांग्रेस को 27. बिहार में 15 फीसद यादव हैं फिर भी कुल 61 यादव उम्मीदवार जीते.8 फीसद कोईरी हैं इनके 19 विधायक. 4 फीसद कुर्मी इनके 16 विधायक 16 फ़ीसदी मुसलमान इनके 24. मुसहर पांच फीसद तो इनकी भी एक सीट
आखिरी बात
अब बात करते हैं पुष्पम प्रिया चौधरी की. इनकी पार्टी पूरी तरह विकास पर, विकास मॉडल पर, कृषि क्रांति पर, बंद पड़ी फैक्टी पर, रोजगार, बिहार की छवि पर फोकस कर रही है. जिन उम्मीदवारों की सूची भी जारी की गयी उनके आगे जाति के कॉलम में मैडम ने योग्यता और उनके कर्म का जिक्र कर दिया.
मैडम ये सब सुनता कौन है. विदेश से पढ़कर आयी हैं बिहार की राजनीति अलग है बिहार की क्या देश की राजनीति ही अलग है. अपने पिता को शामिल कीजिए शायद अपनी सीट निकाल लें. अगर वो नाराज हैं और राय नहीं दे रहे हैं तो झारखंड आइये, अपने सीपी चचा समझा देंगे. इतने पर भी समझ ना आया हो और मुद्दों के आधार पर चुनाव जीतने की सनक कम ना हो, तो सामाजिक कार्यकर्ता जइसे में मेधा पाटकर, योगेंद्र यादव , दयामणि बारला, इरोम शर्मिला से मिल लीजिए. सब चुनाव लड़े और हारे हैं.
आपको क्या लगता है मैडम इनमें नेतृत्व क्षमता की कमी है, या नेतागिरी के गुण की. केजरीवाल का नाम मत लीजिएगा. भाई ने नौकरी छोड़कर एनजीओ बनाया जिसकी मदद से माहौल बनाया, फिर अन्ना मिल गये तो और माहौला बन गया. बिहार में माहौल बनाना मुश्किल काम है और जब बन जाये, तो उस माहौल का फायदा ईश्वर जानें कितने चुनाव तकमिलता है. जेपी का नाम चुनाव में आज भी बिकता है…
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